नई दिल्ली: कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलनकारी किसानों के तेवर भले तल्ख हो रहे हों, लेकिन इनकी संख्या देश के कुल किसानों का एक फीसद भी नहीं है। लिहाजा, न तो इस आंदोलन को ही देशव्यापी कहा जा सकता है और न कानून वापस लेने की मांग को जायज। कृषि विशेषज्ञों की मानें तो जो किसान विरोध कर रहे हैं, वे भी शायद नए कानूनों को अच्छे से समझ नहीं पाए हैं। अगर उन्हें बेहतर तरीके से पुराने कानूनों से तुलना करते हुए इन कानूनों के फायदे समझाए जाएं तो शायद वे भी आंदोलन की राह छोड़ दें। जानकारी के मुताबिक, देश भर में तकरीबन 15 करोड़ किसान हैं। पंजाब में इनकी संख्या 10 लाख के आसपास है। अब अगर दिल्ली की सभी सीमाओं पर बैठे आंदोलनकारी किसानों की संख्या पर गौर करें तो वह अधिकतम एक से सवा लाख तक बताई जा रही है। इनमें भी पंजाब के किसान 75 से 80 हजार ही बताए जाते हैं। अब अगर फीसद निकाला जाए तो आंदोलनरत किसान कुल किसानों का एक फीसद भी नहीं बैठते। यानी 99 फीसद किसान नए कृषि कानूनों के प्रति सहमति और समर्थन रखते हैं।
वहीं, कृषि विशेषज्ञों के अनुसार इन हालात में जबकि नए कानूनों का समर्थन और विरोध करने वाले किसानों में की संख्या में जमीन-आसमान का अंतर हो तो इनकी वापसी की मांग करना और उस पर अड़े रहना किसी भी लिहाज से तर्कसंगत नहीं है। आंदोलनकारी किसानों को चाहिए कि तीनों नए कानूनों को कृषि क्षेत्र के जानकार लोगों से पहले भली प्रकार समझें, पुराने कानूनों के साथ उनकी तुलना करें, उसके बाद केंद्र सरकार के संशोधन प्रस्तावों पर भी गंभीरता से विचार करें। इन कानूनों के प्रति उनकी भ्रांतियां और गलतफहमी सभी दूर हो जाएंगी। केंद्र सरकार प्रस्तावित संशोधनों के अलावा भी सभी उलझनों का समाधान करने की तैयार है।
डॉ. जेपीएस डबास (प्रधान कृषि विज्ञानी, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्था,
दिल्ली) का कहना है कि तीनों कृषि कानून किसानों की प्रगति का मार्ग
प्रशस्त करते हैं। प्रतिस्पर्धा, निजी क्षेत्र का निवेश और तकनीकों के
प्रयोग से खेती का स्वरूप ही नहीं, किसानों की आय में भी इजाफा होगा। लेकिन
ऐसा लगता है कि आंदोलनकारी किसान आढ़तियों, बिचौलियों और कुछ राजनीतिज्ञों
द्वारा फैलाई जा रही गलतफहमी का शिकार हो रहे हैं। अगर पुराने कानून ही
अच्छे होते तो आज किसानों की हालत वैसी न होती, जैसी है। इसलिए तर्कसंगत
सुझाव यही है कि आंदोलनकारी किसानों को यह सभी कानून विस्तार से समझाए
जाएं।