किसानों तथा कारोबारियों को जुर्माने व छापे से आजादी देता है। अब सीधे किसानों से खरीद हो सकेगी। कृषि उत्पादक संघ यह प्रणाली विकसित करेंगे। पुरानी प्रणाली में छह-सात बार लेनदेन होता था जो अब कम हो जाएगा।
नई दिल्ली। केंद्र सरकार जहां नए कृषि कानूनों को किसानों के हित में बताती रही है, वहीं आंदोलन करने वाले इन्हें हर हाल में वापस लेने की मांग पर अड़े हैं। दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलन करने वाले किसानों में बड़ी संख्या पंजाब व हरियाणा के किसानों की है, जहां की मंडियों का कुल शुल्क सबसे ज्यादा। नीति आयोग सदस्य रमेश चंद ने हाल ही में एक रिपोर्ट में बताया है कि किस प्रकार नए कानून किसानों की हालत सुधारने में मदद करेंगे और इनके जरिये बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। बाजार की प्रतिस्पर्धा का लाभ किसानों को ही होगा।
मंडी फीस और कमीशन : देश के 25 राज्यों में कृषि उत्पाद बाजार समितियां (एपीएमसी) हैं। 12 प्रदेशों की मंडी समितियों में अधिसूचित फसलों पर कमीशन नहीं लिया जाता है। इनमें से नौ में सेवा शुल्क 0-1 फीसद है। मध्य प्रदेश और त्रिपुरा में यह दो फीसद हो जाता है। पांच प्रदेशों में 1-2 फीसद कमीशन लिया जाता है। कर्नाटक में कुल शुल्क 3.5 फीसद है। बाजार समिति के हित में दो प्रतिशत या उससे कम मंडी शुल्क का निर्धारण किया जा सकता है। सात प्रदेशों में कुल शुल्क 5-8 फीसद है। पंजाब व हरियाणा में कुल शुल्क सबसे ज्यादा है।
अनुबंध कृषि में बदलाव : अनुबंध कृषि और कॉरपोरेट फार्मिंग को लेकर दुविधा में रहने की जरूरत नहीं है। कॉरपोरेट फार्मिंग में उत्पादन गतिविधियों में कंपनियों का हस्तक्षेप होता है। अनुबंध कृषि में तो प्रायोजक या कंपनियों को लीज पर जमीन देने का प्रावधान ही नहीं किया गया है। कृषि भूमि के सापेक्ष कोई रिकवरी जारी नहीं होगी। नेस्ले व टाटा जैसी कंपनियां पहले से ही किसानों के साथ साझेदारी निभा रही हैं।
एपीएमसी प्रणाली की सीमाएं : किसान अधिसूचित फसलों को एपीएमसी मंडियों के बाहर नहीं बेच सकते। फसलों की खरीद-बिक्री के लिए कई स्तर पर शुल्क देने पड़ते हैं। किसान सीधे ट्रेडर को उत्पाद बेच नहीं सकते, भले ही वे सभी प्रकार का शुल्क देने के लिए तैयार हों। कमीशन व सेस से राजस्व की प्राप्ति होती है।
राज्य भी पहना सकते हैं एमएसपी को कानूनी जामा, महाराष्ट्र कर चुका है यह काम : मोदी सरकार ने एमएसपी के दायरे में कई और फसलों को शामिल किया है। दलहन उत्पादन के लिए किसानों को केंद्र व राज्य प्रोत्साहित करते हैं। सरकार कुल उत्पादन का सात फीसद अनाज खरीदती रही है। अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को कानूनी अधिकार देना रास्ता है तो राज्य ऐसा आसानी से कर सकते हैं। लेकिन, अगर मांग और कीमत में संतुलन नहीं रहा तो इसका विफल होना तय है। वर्ष 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने एमएसपी के उल्लंघन पर जेल और जुर्माने का प्रावधान किया था।
फसलों की बाजार कीमत कम होने पर खरीदार पीछे हट गए और इसका नुकसान किसानों को ही हुआ। गन्ना उत्पादक राज्यों की बात करें तो बाजार के अनुकूल नहीं रहने पर चीनी मिलें पेराई बंद कर देती हैं, जिसके कारण कानूनी विवाद की स्थिति पैदा होती है। सीमित शुल्क या कमीशन निजी क्षेत्र के खरीदारों को एमएसपी पर खरीद के लिए प्रोत्साहित करेगा, जिससे किसानों को विकल्प उपलब्ध होगा। बिहार व केरल जैसे राज्यों में बिना एपीएमसी के एमएसपी पर धान की खरीद होती है। एमएसपी से इतर फूल, मछली व दुग्ध जैसे कारोबार में 4-10 फीसद की तेजी आई है, जबकि वर्ष 2011 से अब तक अनाज में महज 1.1 फीसद ही वृद्धि हुई है। कृषि क्षेत्र में कुल निवेश में निजी क्षेत्र की भागीदारी सिर्फ दो फीसद है, जिसे जल्द से जल्द बढ़ाने की जरूरत है।
नियमों में हुए बदलाव : वर्ष 2003 में केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार ने फलों व सब्जियों को एपीएमसी से बाहर करने का आह्वान किया। इसका 16 राज्यों ने अनुपालन किया। वर्ष 2014 के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने एक मॉडल एक्ट तैयार किया, जिसे सिर्फ अरुणाचल प्रदेश ने लागू किया। इस प्रकार 18 वर्षों तक एपीएमसी सुधार आंशिक रूप से ही प्रभावी रहा। इसके बाद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार तीन नए कानून लेकर आई। आवश्यक वस्तु कानून में सुधार की पहल 2002 में हुई थी जो अब भी आंशिक ही है।
निवेश को बढ़ावा : आवश्यक वस्तु कानून में हुए बदलाव से
कृषि क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा मिलेगा। इससे जहां कृषि उत्पादों के
मूल्य में स्थिरता आएगी वहीं कोल्ड स्टोर व वेयर हाउस जैसी बुनियादी
ढांचे का भी विकास होगा। खरीद-बिक्री कानून काफी समय से आधे से ज्यादा कृषि
उत्पादों की बिक्री मंडियों से बाहर होती रही है। नया कानून इसे वैधानिक
बनाता है।