नई दिल्ली। अफ़गानिस्तान की क्रिकेट टीम ने अपनी बेहतरीन परफॉर्मेंस से पूरी दुनिया को चौंकाया है। अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों इस टीम ने कई ताक़तवर टीमों को घुटनों पर ला दिया, मगर दशकों से आतंकवाद की तबाही झेल रहे अफ़गानिस्तान के लिए क्रिकेट टीम बनाना आसान नहीं रहा होगा।
जिस देश के बच्चों को क्रिकेट की गेंद से ज़्यादा आसानी से बम मिल जाते हों, वहां क्रिकेट टीम बनाना रेगिस्तान में फूल खिलाने से कम नहीं है। ख़ासकर तब जबकि इस टीम के अधिकांश सदस्य रिफ्यूजी कैंपों से आते हों, जिनका बचपन तबाही और बर्बादी के दहलाने वाले मंज़र के बीच बीता हो तो गन और क्रिकेट के बैट में किसी एक को चुनना मुश्किल फ़ैसला हो जाता है।
गिरीश मलिक की तोरबाज़ उसी कोशिश और जद्दोज़हद को दिखाती है, जिसमें कुछ लोगों ने मासूम बचपन को उसका हक़ दिलाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर दिया। तोरबाज़ एक इमोशनल-थ्रिलर फ़िल्म है, जो शुक्रवार को नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हो गयी।
संजय दत्त ने तोरबाज़ में पूर्व आर्मी ऑफ़िसर नासिर का किरदार निभाया है, जो डॉक्टर है। नासिर की तैनाती काबुल में होती है, जहां एक आतंकी हमले में उसकी पत्नी और बेटा आर्यन मारे जाते हैं। काबुल के रिफ्यूजी कैंपों के बच्चों के लिए काम करने वाली आएशा (नर्गिस फाखरी) एक कार्यक्रम के लिए नासिर को बुलाती हैं। काबुल में नासिर को उसका अतीत परेशान करता है, पर वहां बच्चों को आतंकवाद की ओर आकर्षित होते देख वो वहां रुककर आएशा की एनजीओ के साथ काम करने का फ़ैसला करता है।नासिर रिफ्यूजी कैंप के बच्चों को लेकर एक क्रिकेट टीम बनाता है। वो इन बच्चों को काबुल क्रिकेट क्लब से प्रशिक्षित करवाना चाहता है, मगर क्रिकेट क्लब का कोच शहरयार ख़ान (गैवी चहल) इसके लिए राज़ी नहीं होता। उसका मानना है कि रिफ्यूजी कैंप के बच्चे भरोसे के लायक़ नहीं हैं, वो कभी भी आंतक की ओर मुड़ सकते हैं। बच्चों की काबिलियत साबित करने के लिए नासिर तैश में आकर शहरयाहर को अंडर 16 टीम से मैच की चुनौती देता है।
रिफ्यूजी कैंप के बच्चों में बाज़ भी है, जो पाकिस्तान से आया है और तालिबान के कैंप में प्रशिक्षण ले चुका है। तालिबानियों का सरगना क़ज़ार (राहुल देव) उसे आत्मघाती हमला करवाने के लिए वापस चाहता है। इस बीच अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा बल तालिबानियों के एक ठिकाने को बम से उड़ा देते हैं, जिसमें क़ज़ार और उसका कमांडर हबीबुल्ला (कुवरजीत चोपड़ा) के मारे जाने की ख़बर आती है, मगर दोनों ज़िंदा होते हैं।
इसका बदला लेने के लिए क़ज़ार काबुल में बड़े हमलों की तैयारी करता है। वो बाज़ को ढूंढकर उसे उठवा लेता है। नासिर को पता चलता है तो वो सीधे क़ज़ार से मिलता है और उसे सिर्फ़ एक मैच के लिए छोड़ने के लिए क़ज़ार को राज़ी कर लेता है। हालांकि, क़ज़ार की इसके पीछे साजिश होती है। काबुल जूनियर्स और रिफ्यूजी बच्चों की टीम तोरबाज़ के बीच मैच होता है।
रोमांचक मुकाबले में टीम तोरबाज़ काबुल जूनियर्स को हरा देती है, मगर क़ज़ार की साजिश के चलते मैच के बाद आतंकी हमला होता। बाज़ ख़ुद को कुर्बान कर देता है और आत्मघाती हमले में क़ज़ार को उड़ा देता है, ताकि दूसरे बच्चे तालिबान के शिकंजे में ना आ सकें।
तोरबाज़ आतंकवाद के लिए मासूम बच्चों के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ कड़ा संदेश देने वाली फ़िल्म है। फ़िल्म की कथाभूमि भले ही अफ़गानिस्तान हो, मगर इसका संदेश व्यापक है। गिरीश मलिक और भारती जाखड़ के लेखन में चुस्ती है और कुछ संवाद असरदार हैं। किरदारों की भाषा में साम्यता है। अफ़गानिस्तान में अर्से तक अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा बलों ने तालिबान को ख़त्म करने के लिए डेरा जमाया, जिसको लेकर भी तमाम इशूज़ रहे हैं, मगर फ़िल्म मुद्दे से भटकती नहीं है। तोरबाज़ के असली हीरो रिफ्यूज़ी कैंप के बच्चों का किरदार निभाने वाले बाल कलाकार हैं।
संजय दत्त अपने रोल में ठीक लगे हैं। वहीं, नरगिस फाखरी का रोल बहुत लम्बा नहीं है, मगर जितना है, उसे उन्होंने ठीक से निभाया है। फ़िल्म के प्रोड्यूसर राहुल मित्रा ख़ुद भी अफ़गानिस्तानी सैन्य अफ़सर के रोल में दिखे हैं। राहुल देव ने तालिबानी लीडर क़ज़ार के किरदार को बेहतरीन ढंग से निभाया है। राहुल ने इस किरदार के लिए ज़रूरी भाषा और भावों को लेकर जो संयम बरता है, उससे यह प्रभावशाली हो गया।
हीरू केसवानी की सिनेमैटोग्राफी ने अफ़गानिस्तान की ख़ूबसूरती के साथ बर्बादी को कामयाबी के साथ क़ैद किया है। बिक्रम घोष और विक्रम मोंटरोस का संगीत दृश्यों को सपोर्ट करता है। प्रोडक्शन के स्तर पर तोरबाज़ विजुअली रिच फ़िल्म है। फ़िल्म के क्रेडिट रोल में ऐसे सभी रियल लाइफ़ हीरोज़, संगठनों और क्रिकेटर्स का शुक्रिया अदा किया जाता है, जो इन चिल्ड्रेन ऑफ़ वॉर को सपोर्ट कर रहे हैं।
कलाकार- संजय दत्त, नर्गिस फाखरी, राहुल देव आदि।
निर्देशक- गिरीश मलिक
निर्माता- राहुल मित्रा, गिरीश मलिक आदि।