
पशुधन की हानि होती है, गांव के गांव और घर मटियामेट हो जाते हैं, संचार व्यवस्था भंग हो जाती है, पुल टूट जाते हैं, रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं, परिणामस्वरूप यात्री अधर में फंसे रह जाते हैं। बिजली-पानी का संकट गहरा जाता है और स्थानीय लोग कई-कई दिनों तक भूखे-प्यासे राहत पहुंचने की बाट जोहते रहते हैं। अक्सर बादल फटने की घटनाओं से देश के उत्तरी राज्य उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर को दो-चार होना पड़ता है। ऐसा लगता है यह इन राज्यों की नियति बन चुकी है।
बीते दिनों हिमाचल प्रदेश के लाहुल स्पीति में तोजिंग नाले के पास, किन्नौर में वीरधम पंचायत और कुल्लू में मणिकर्ण के ब्रह्म गंगा नाला की पहाड़ी पर बादल फटने से आई बाढ़ में 16 लोग बह गए, जिनमें से सात के शव बरामद हुए हैं, जबकि सात लापता हैं। अच्छी बात यह रही कि दो को बचा लिया गया। इसके अलावा, मनाली-लेह मार्ग बंद हो जाने से सैकड़ों पर्यटक फंस गए हैं। राज्य भर में करीब 387 सड़कें बंद हो गई हैं, जिससे राज्य को करीब 500 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। प्राकृतिक आपदाओं का पहाड़ों के साथ चोली-दामन का रिश्ता है। मध्य हिमालय का यह भूभाग दुनिया की नवविकसित पहाड़ियों में गिना जाता है।
ऐसे में भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं यहां आम हैं। कोई साल ही ऐसा रहा हो जब इस पर्वतीय क्षेत्र में मानसून के मौसम में इस तरह के हादसे न हुए हों। वर्ष 2015 के जून-जुलाई महीनों में पहाड़ों पर कम से कम दर्जन भर बादल फटने की घटनाएं हुईं। इनमें लगातार जनधन की हानि हुई। इस तरह की घटनाएं अक्सर उत्तर भारत के पहाड़ी राज्यों में ही ज्यादा होती हैं। ऐसे हादसों में लगातार हो रही बारिश और बादल फटने से पानी का उफान इतना तेज होता है कि वह कच्चे-पक्के रास्तों तक को अपने साथ बहा ले जाता है। इससे राहतकर्मी और जवानों को कुछ किलोमीटर की दूरी तय कर घटनास्थल तक पहुंचने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और समय भी काफी लगता है। इससे राहत कार्य में देरी भी होती है। अक्सर होता यह है कि राहतकर्मियों और बचावदल के सदस्यों व सेना के जवानों के पहुंचने से पहले भारी बारिश और मलबा गिरने के बावजूद स्थानीय लोग ही राहत कार्य में अहम भूमिका निभाते हैं।
बादल फटने को अंग्रेजी में क्लाउड बर्स्ट कहते है। वातावरण में दबाव जब कम होता है और एक छोटे दायरे में अचानक भारी मात्र में बारिश होती है, तब बादल फटने की घटना होती है। ऐसा तब होता है, जब बादल आपस में या किसी पहाड़ी से टकराते हैं। तब अचानक भारी मात्र में पानी बरसने लगता है। इसमें 100 मिलीमीटर प्रति घंटा या फिर उससे भी अधिक तेजी से बारिश होती है। भारी नमी से लदी हवा जब-जब अपने रास्ते में पड़ने वाली पहाड़ियों से टकराती है, तब बादल फटने की घटना होती है। ढाई हजार से चार हजार मीटर की ऊंचाई पर आमतौर पर बादल फटने की घटना होती है।
बादल फटने के दौरान आमतौर पर बिजली चमकने, गरज और तेज आंधी के साथ भारी बारिश होती है। एक साथ भारी मात्र में पानी गिरने से धरती उसे सोख नहीं पाती और बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। बादल फटने पर चारों तरफ भारी तबाही मच जाती है। बीच में यदि हवा बंद हो जाए तो बारिश का समूचा पानी एक छोटे-से इलाके में जमा होकर फैलने लगता है। उस स्थिति में वह अपने साथ रास्ते में मलबा आदि जो भी आता है, उसे बहा ले जाता है। यह कटु सत्य है कि आज देश की 6.88 फीसद आबादी पर प्राकृतिक आपदा का खतरा मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन की इसमें अहम भूमिका है। बादल फटने की घटनाओं को भी विज्ञानी जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देख रहे हैं। जबकि उत्तराखंड और हिमाचल जैसे पर्वतीय संवेदनशील राज्यों में अंधाधुंध विकास की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। इसलिए अब भी समय है कि हमारे नीति नियंता इन संवेदनशील पहाड़ी राज्यों में अंधाधुंध विकास पर अंकुश लगाने की सोचें।