क्यों प्रैक्टिकल लर्निंग के लिए जरूरी है आनलाइन के साथ आफलाइन क्लासेज

 

आनलाइन को सहायक प्लेटफार्म के रूप में देखा जाना चाहिए
कोरोना काल के दौरान देश और दुनिया की तमाम कंपनियों में नौकरियों की संख्या में कमी देखी गई लेकिन अब इसमें फिर से सुधार दिख रहा है। जहां तक कमी की बात है तो मेरा मानना है कि स्किल्ड फ्रेशर्स के लिए कभी कोई कमी नहीं रही है।

 इंजीनियरिंग कोर्स में जो थ्योरेटिकल पार्ट है, उसे तो आनलाइन आसानी से पढ़ाया जा सकता है, पर जो विषय पूरी तरह प्रैक्टिकल ओरिएंटेड हैं, उन्हें आनलाइन चलाना मुश्किल है। आनलाइन भी उन लोगों के लिए है, जो सेल्फ लर्नर हैं। पढ़ने का मतलब सिर्फ कहीं एडमिशन ले लेना नहीं होता, बल्कि पूरी तरह से नॉलेज लेना होता है। आफलाइन के दौरान बच्चे एक-दूसरे से मिलते हैं, बातें करते हैं, टीचर से इंटरैक्शन करते हैं, आमने-सामने उनसे अपनी शंकाओं का समाधान हासिल करते हैं। बच्चे दूसरे बच्चों को देखकर उनके साथ पढ़कर मोटिवेट होते हैं। कॉलेज कैंपस में बच्चे पढ़ने के साथ एंटरटेनमेंट भी करते हैं। खेल गतिविधियों में भी सक्रियता से हिस्सा लेते हैं। ऐसे में पढ़ाई को लेकर उनका उत्साह बना रहता है। मेरा मानना है कि आफलाइन वाला काम आनलाइन नहीं हो सकता, वरना वांछित आउटपुट नहीं हासिल होगा। अगर आइआइटी की बात करें, तो वहां पढ़ने वाले स्टूडेंट सेल्फ लर्नर होते हैं। वे खुद से मोटिवेट होते हैं। मेरे खयाल से आनलाइन को सहायक प्लेटफार्म के रूप में देखा जाना चाहिए। इसे पूरी तरह लागू करना व्यावहारिक नहीं हो सकता। हां, कुछ कोर्स/विषय बेशक आनलाइन हो सकते हैं, होने भी चाहिए।

बदलते समय में नौकरियों की स्थिति

कोरोना काल के दौरान देश और दुनिया की तमाम कंपनियों में नौकरियों की संख्या में कमी देखी गई, लेकिन अब इसमें फिर से सुधार दिख रहा है। जहां तक कमी की बात है, तो मेरा मानना है कि स्किल्ड फ्रेशर्स के लिए कभी कोई कमी नहीं रही है। कोरोना काल में भी ज्यादातर नौकरियां हायर पैकेज वाले लोगों की गई हैं। मैं अपने संस्थान में प्लेसमेंट की बात करूं, तो मैंने तो यही पाया है कि कोरोना में फ्रेशर्स को कहीं अधिक और बेहतर प्लेसमेंट मिला।

आज से कुछ साल पहले तक इंडस्ट्री और एकेडेमिया के बीच गैप की बात होती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों के बच्चों को इंडस्ट्री खुशी-खुशी हायर करती है। दरअसल, जो शिक्षण संस्थान अपने यहां अच्छे बच्चों को दाखिला देने पर ध्यान देते हैं, उन्हें प्लेसमेंट की समस्या कभी नहीं होती। ऐसे गिने चुने शिक्षण संस्थान हैं, जो हायर लेवल के बच्चों को दाखिले में वरीयता देते हैं। ऐसे बच्चे सेल्फ लर्नर होते हैं। लेकिन जो बच्चे पढ़ाई को लेकर गंभीर नहीं होते, उन्हें ‘स्पून फीडिंग’ करानी पड़ती है। जो बच्चे अपने करियर और लक्ष्य को लेकर पहले से फोकस्ड होते हैं, उन्हें कोई समस्या नहीं होती। अगर हम कमजोर समझे जाने बच्चों में भी अपने करियर-लक्ष्य को लेकर जुनून भरें, उन्हें प्रेरित करें, तो वे भी 70 फीसद के बजाय 80-85 फीसद अंक आसानी से हासिल कर सकते हैं। फिर उनके प्लेसमेंट में भी कोई मुश्किल नहीं होगी।

हिंदी में कोर्स के फायदे

हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में कोर्स संचालित करने की दिशा में सरकार प्रयास कर रही है। जिन बच्चों की अंग्रेजी कमजोर है या जो हिंदीभाषी पृष्ठभूमि से आते हैं, उनके लिए यह निश्चित रूप से स्वागत योग्य है। ऐसे बच्चों को हिंदी में पढ़ाने की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। लेकिन चूंकि इंजीनियरिंग जैसे तकनीकी विषयों की किताबें और शब्दावली ज्यादातर अंग्रेजी में होती है, इसलिए हम ऐसे बच्चों को अंग्रेजी सीखने और सुधारने के लिए प्रेरित भी करते हैं।

प्राथमिक शिक्षा पर हो फोकस

जिस तरह से हमारे देश में मेडिकल और हायर एजुकेशन पर ध्यान दिया गया और आज यह विश्वस्तरीय बन सका है, उसी तरह हमें अपने देश में प्राइमरी एजुकेशन पर भी भरपूर ध्यान देने की जरूरत है। बच्चों को शुरुआत में ही अच्छी शिक्षा दिलाने पर ध्यान दिया जाए, तो आगे चलकर उनका हायर एजुकेशन खुद ब खुद बेहतर होगा। इसके लिए सरकार को बच्चों के प्राइमरी एजुकेशन की गारंटी लेनी चाहिए। अमेरिका सहित दुनिया के तमाम विकसित देश बच्चों के प्राइमरी एजुकेशन पर काफी ध्यान देते हैं, जिसका उन्हें खूब फायदा मिला।