उत्तराखंड में कहीं भारी न पड़ जाए भाजपा में अंदरूनी खींचतान

 

मंत्री हरक सिंह और पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत के बीच तकरार ने भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। फाइल
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि जैसे-जैसे प्रदेश में कांग्रेस की संभावनाएं बढ़ेंगी वैसे-वैसे कांग्रेस का अंतर्कलह भी परवान चढ़ता जाएगा। भाजपा में तो अंतर्कलह को थामने का सांगठनिक मैकेनिज्म है लेकिन कांग्रेस में अरसे से इसकी कमी खल रही है।

देहरादून। उत्तराखंड में चुनावी मैदान सजने लगा है। सत्ताधारी दल भाजपा व प्रमुख दल कांग्रेस बिसात बिछाने में मशगूल हैं। मौजूदा दौर में भाजपा व कांग्रेस दो-दो मोर्चो पर जूझ रहे हैं। दल से बाहर एक-दूसरे को घेरने में लगी पार्टियां भीतरी कलह को शांत करने में भी लगी हैं। दो मोर्चो पर जूझ रही भाजपा व कांग्रेस इस बात को लेकर चिंतित हैं कि समय रहते अंतर्कलह शांत न हुआ तो चुनाव में इसके परिणाम घातक हो सकते हैं। खासतौर पर ऐसी सीटों पर अंदरूनी खींचतान का निर्णायक असर पड़ सकता है, जहां जीत-हार का फैसला ही 500-1000 वोटों के अंतर से होता रहा है। सांगठनिक दृष्टि से बेहतर भाजपा में अंदरूनी लड़ाई की नुमाइश देख कांग्रेस अपने भीतर चल रही खींचतान को मामूली मान रही है।

सत्ताधारी पार्टी भाजपा के पास सरकार के अलावा मजबूत संगठन भी है। पार्टी के पास मुख्यमंत्री समेत बारह मंत्रियों की टीम, पांच पूर्व मुख्यमंत्री, 56 सिटिंग विधायक, पांच लोकसभा सदस्य और दो राज्यसभा सदस्य की राजनीतिक पूंजी के साथ पंचायतों व निकायों में वर्चस्व भी है। पार्टी का प्रांत से लेकर मंडल तक सक्रिय संगठन व आनुषांगिक संगठनों का ढांचा है। नियमित अधिवेशन, बैठकें और कार्यशालाएं होती हैं। संगठन के राष्ट्रीय नेताओं से नियमित व नियोजित संवाद भी भाजपा की सांगठनिक कार्यशैली में शामिल है। संघ के समर्पित स्वयंसेवकों का स्वाभाविक सहयोग भी भाजपा की ताकत रही है। इतना सब होने के बावजूद भाजपा को अपने ही कई दिग्गज असहज कर रहे हैं। यूं तो बड़े संगठनों में सामान्य तौर पर होने वाली खींचतान को सामान्य रूप से ही लिया जाता है व सुलझा भी लिया जाता है। बावजूद इसके चुनाव से ठीक पहले सार्वजनिक तौर पर भिड़ रहे भाजपा के छोटे-बड़े नेता किसी खतरे का संकेत तो नहीं दे रहे, यह चिंता पार्टी के बड़ों को बेचैन किए हुए है। भाजपा में शामिल कर लिया था। इन शर्तो के तहत आधी कैबिनेट सीटें कांग्रेस मूल के भाजपाइयों की झोली में गईं व कुल नौ विधायक सीटें भी उनको समर्पित हुईं। इस तरह वर्षो से भाजपा के लिए काम कर रहे नेता हाथ मलते रह गए व भाजपा को कोसने वाले सत्ता की कुर्सी पर विराजमान हो गए। जिनकी तब सुनी नहीं गई वे अब कह रहे हैं, यह तो होना ही था।

भाजपा में अंदरखाने चल रही खींचतान को देखकर खुश हो रही कांग्रेस अपने दल के अंदर चल रही कलह को मामूली आंक रही है। हरीश रावत को प्रदेश कांग्रेस में बड़ा चेहरा होने के कारण मुख्यमंत्री का स्वाभाविक दावेदार भी माना जा रहा है। प्रदेश अध्यक्ष पद पर अपने खास को बिठाने व स्वयं को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाने में कामयाब रहे रावत ने दल के भीतर चल रही लड़ाई का प्रथम दौर तो जीत ही लिया है। इस जीत ने पार्टी में उनके विरोधियों को और ज्यादा सक्रिय व मुखर कर दिया है। रावत समर्थक व विरोधियों की लड़ाई गाहे-बगाहे प्रदर्शित होती रहती है। इसके अलावा राज्य की सभी विधानसभा सीटों पर टिकट के दावेदारों ने भी एक-दूसरे के पर काटने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि जैसे-जैसे प्रदेश में कांग्रेस की संभावनाएं बढ़ेंगी वैसे-वैसे कांग्रेस का अंतर्कलह भी परवान चढ़ता जाएगा। भाजपा में तो अंतर्कलह को थामने का सांगठनिक मैकेनिज्म है, लेकिन कांग्रेस में अरसे से इसकी कमी खल रही है।