देश के अनेक हिस्सों में अलगाववाद की झलक, सुरक्षा मामलों पर उचित नहीं राज्यों की राजनीति

 

बीते दिनों मोहाली में पुलिस के खुफिया शाखा के मुख्यालय पर हुए हमले की जांच में जुटे सुरक्षा अधिकारी। फाइल

हाल के दिनों में देश के कई राज्यों में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं जिन्हें देखकर ऐसा महसूस होता है कि केंद्र-राज्य संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता है। इन घटनाक्रमों में आम जनता के साथ ही पुलिस बल को भी निशाना बनाया गया है।

 पिछले कुछ दिनों के दौरान देश के अनेक हिस्सों में ऐसी कई घटनाएं देखी गई हैं जिनमें अलगाववाद की झलक दिखी है। हाल ही में पंजाब के मोहाली में पुलिस के इंटेलिजेंस हेडक्वार्टर पर हमला हुआ था। इस हमले की जिम्मेदारी एक प्रतिबंधित संगठन सिख फार जस्टिस (एसएफजे) ने ली है। इससे कुछ समय पहले शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने पटियाला में खालिस्तान मुर्दाबाद मार्च का आयोजन किया था। इस दौरान शिवसेना के कार्यकर्ताओं और खालिस्तान समर्थकों के बीच झड़प भी हुई थी। पटियाला में टकराव के बाद केंद्रीय और राज्य की खुफिया एजेंसियों व सुरक्षा अधिकारियों के माथे पर बल पड़ गए।

इन तमाम घटनाक्रमों के बाद जो सबसे बड़ा तथ्य सामने आया वह यह कि पंजाब सहित देश के कुछ अन्य राज्यों में खालिस्तान आंदोलन को बढ़ावा देने वाले तत्व सक्रिय हो गए हैं। प्रतिबंधित संगठन सिख फार जस्टिस (एसएफजे) ने घोषणा की है कि वह छह जून को हिमाचल प्रदेश में ‘खालिस्तान’ जनमत संग्रह कराएगा। उल्लेखनीय है कि हाल ही में धर्मशाला में हिमाचल प्रदेश विधानसभा के फाटकों और चारदीवारी पर ‘खालिस्तान’ के झंडे लगे हुए पाए गए थे और दीवारों पर खालिस्तान के समर्थन में चित्र भी बनाए गए थे। इसके अलावा, एसएफजे ने 29 अप्रैल को वालंटियर्स की भर्ती के लिए ‘हरियाणा बनेगा खालिस्तान’ अभियान शुरू करने की बात की थी। इस दौरान खालिस्तान जनमत संग्रह के माध्यम से हरियाणा को भारत के कब्जे से मुक्त करने की पैरवी की भी बात की गई। इन सब बातों को देखते हुए अलगाववादी संगठन ‘सिख फार जस्टिस’ के खिलाफ उचित कार्रवाई पर पंजाब सरकार की तरफ से कोई खास बात सामने नहीं आई।

भारत कानून के शासन से चलने वाला देश है और कानून का शासन चलता रहे, इसकी जिम्मेदारी केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों की भी होती है। लेकिन भारत में कुछ राज्य सरकारें भिन्न राजनीतिक विचारधारा के आधार पर केंद्र सरकार से ही प्रतिस्पर्धा करते नजर आती हैं। उन्हें केंद्र सरकार को उपलब्धि विहीन बनाने की लत लग चुकी है। ऐसी राज्य सरकारों को इस बात का भी आभास होना चाहिए कि केंद्र के विरोध का जो तरीका उन्होंने अपनाया है उसके बाईप्रोडक्ट के रूप में देश में खालिस्तानी आंदोलन, धार्मिक समुदायों के मध्य विवाद और अलगाववादी मूल्यों को बढ़ावा मिल रहा है। सबसे गंभीर दुष्प्रभाव यह है कि भारत विरोधी कुछ देशों को इससे एक नई ऊर्जा मिल रही है जिसमें पाकिस्तान और चीन जैसे देश प्रमुख हैं।

हाल में देश में शांति व्यवस्था का परिदृश्य देखें तो मध्य प्रदेश का खरगोन, झारखंड का लोहरदगा, बोकारो हो, बंगाल हो या कर्नाटक का हुबली क्षेत्र, आंध्र प्रदेश का कुरनूल हो, दिल्ली के जहांगीरपुरी में राम नवमी के अवसर पर शोभा यात्र के दौरान हुई हिंसा हो, उत्तराखंड के हरिद्वार भगवानपुर, महाराष्ट्र के अमरावती के अचलपुर की बात हो, ये कुछ ऐसी जगहें हैं, जहां धार्मिक समुदाय की झड़पों का जख्म केंद्र राज्य संबंधों और खासकर पुलिस प्रशासन को ङोलना पड़ा है। राज्यों के पुलिस प्रशासन को अपराधियों और आतंकियों से उतनी परेशानी नहीं हुई, जितनी धार्मिक समुदायों के बीच लाउडस्पीकर, अजान, धार्मिक जुलूसों और हनुमान चालीसा जैसे मुद्दों पर हुई है। मतलब साफ है कि धार्मिक मामलों से विधि प्रवर्तनकारी निकायों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा है

इन प्रकरणों को एक वर्ग बहुसंख्यकवाद बनाम अल्पसंख्यकवाद से जोड़ कर देख रहा है। जिन्हें आज भारत के बहुसंख्यकवाद से समस्या है, उन्होंने कश्मीर की दशकों से चली आ रही बहुसंख्यक अराजकता के खिलाफ कभी अपना मुंह नहीं खोला। कश्मीर में शासन चलाने की बात रही हो, अपने पंथ मजहब को हर समय तरजीह देने की बात रही हो, वहां के अल्पसंख्यकों को कुछ न समझने की बात रही हो, ये गलत नहीं था और हिंदू धर्म के संरक्षण के लिए कुछ प्रयास कर लिए गए तो ये देश की पंथनिरपेक्ष छवि को तोड़ने की बात कैसे हो गई? कश्मीर के बहुसंख्यक समुदाय ने लंबे समय तक न भारत के शासन को माना, न भारत के संविधान को और न ही भारत के लोकतंत्र को। जिस लोकतंत्र के लिए भारत को जख्मी कर देने की कोशिश वहां अलगाववादियों, पत्थरबाजों, पाक समर्थित आतंकियों ने की, क्या वही धर्म होता है बहुसंख्यकवाद का।

वहीं, बात करें आज के हिंदू बहुसंख्यकवाद की तो इसे गलत तरीके से अल्पसंख्यक विरोधी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और इसके नाम पर खासकर मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग को हिंदुओं और केंद्र सरकार के खिलाफ भड़काया जा रहा है। सोचने वाली बात यह है कि भारत सरकार यदि इतनी ही अल्पसंख्यक विरोधी होती तो आज जम्मू कश्मीर का जिस तरह समावेशी विकास हो रहा है, वह हो पाता? बात करें बंगाल की तो वहां अल्पसंख्यक समुदायों, हिंदुओं के अधिकारों के संरक्षण के लिए राज्य सरकार कितनी जागरुक है, यह सभी को पता है। क्या लोकतंत्र, मानवाधिकार और न्याय की परिभाषा बंगाल, पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड और दक्षिण भारतीय राज्य ही गढ़ेंगे और वही सार्वभौमिक होगा?

इन सब समस्याओं से निपटने का तत्काल उपाय करना होगा। विरोधी राजनीतिक विचारधारा वाली राज्य सरकारों को केंद्र सरकार में विश्वास व्यक्त करना होगा और वही केंद्र सरकार को राज्यों के बेहतर विकास में अपनी सहायक की भूमिका सक्रिय होकर निभानी होगी, क्योंकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 355 भी कहता है कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से प्रत्येक राज्य की सुरक्षा कर

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