प्रवासी परिंदों पर वैज्ञानिक कैसे रखते हैं अपनी पैनी नजर? एक्‍सपर्ट से जानें इसके दिलचस्‍प और अनछुए पहलू

 

प्रवासी परिंदों पर वैज्ञानिक कैसे रखते हैं अपनी पैनी नजर। फाइल फोटो।

Bird Ringing and Migratory Birds आखिर ये वर्ड रिगिंग क्‍या होता है। आधुनिक युग में यह पक्षी वैज्ञानिकों ने इसका इस्‍तेमाल कैसे किया है। आज हम आपको वर्ड रिंगिंग के बारे में विस्‍तार से बताएंगे। पर्यावरणविद विजयपाल बघेल ने वर्ड रिंगिंग के अनछुए पहलुओं के बारे में विस्‍तार से बताया।

नई दिल्‍ली: इसके पूर्व की कड़ी में हमने आपको बताया कि विदेशी परिंदें हजारों मील का सफर कैसे तय करते हैं? इस क्रम में फ्लाइवेज का विस्‍तार से वर्णन किया गया। दरअसल, ये फ्लाइवेज बर्ड के अदृश्‍य आकाश मार्ग को कहते हैं। सदियों से इन्‍हीं फ्लाइवेज के जरिए विदेशी परिंदे अपना सफर तय करते आ रहे हैं। प‍क्षी वैज्ञानिकों ने विदेशी पर‍िंदों का रूट जानने के लिए बर्ड में सेटेलाइट मिनी ट्रांसमीटर का उपयोग किया, जीपीएस के जरिए उनके रूट को मैप किया गया। आज बर्ड साइंटिस्‍ट डेटा लागर्स के जरिए इस पर काम कर रहे हैं। विदेशी परिंदों के रूट जानने के बाद इस कड़ी में हम आपको बताते हैं कि बर्ड रिंगिंग क्‍या है प्रवासी पक्षियों के साथ बर्ड रिंगिंग का खूब जिक्र होता है। आखिर ये बर्ड रिगिंग क्‍या होता है। आधुनिक युग में पक्षी वैज्ञानिकों ने इसका इस्‍तेमाल कैसे किया है? आज इस कड़ी में हम आपको बर्ड रिंगिंग के बारे में विस्‍तार से बताएंगे। पर्यावरणविद विजयपाल बघेल ने बर्ड रिंगिंग के अनछुए पहलुओं के बारे में विस्‍तार से बताया

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क्‍या है बर्ड रिंगिंग

1- पर्यावरणविद विजयपाल बघेल का कहना है कि दरअसल, पक्षियों के पैरों में छल्‍ला पहनाने की अब विश्‍व प्रचलित हो चली इस विधि को बर्ड रिंगिंग कहते हैं। बर्ड रिंगिंग अभियान ने प्रवासी पक्षियों से संबंधित आंकड़े एकत्र करने की दिशा में एक बड़ी क्रांति ला दिया है। इसके तहत पक्षी विशेष का नाम स्‍थान, पता और तिथि जैसे कुछ अहम सूचनाएं छल्‍ले पर दर्ज कर प्रवासी परिंदों के पैर में पहनाकर उन्‍हें खुले आकाश में छोड़ दिया जाता है। इस बर्ड रिंगिंग अभियान ने प्रवासी पक्षियों से संबंधित आंकड़े एकत्र करने की दिशा में एक क्रांति ला दिया है। बर्ड रिंगिंग जैसी वैज्ञानिक तकनीक को आरंभ करने का श्रेय डेनमार्क के पक्षी वैज्ञानिक एचसीसी मार्टेनसन को जाता है। 1809 ई में मार्टेनसन ने इस तकनीक को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया। उन्‍होंने कहा कि हालांकि यह एक प्राचीन विधि है। प्राचीन काल में पक्षियों के पैरों में छल्‍ले अन्‍य कारणों से पहनाए जाते थे। खासकर संदेश भेजने के लिए इनका उपयोग किया जाता था।

2- बघेल का कहना है कि मार्टेनसन ने सर्वप्रथम जस्‍ते के छल्‍ले का उपयोग किया था। बाद में उन्‍होंने जस्‍ते के स्‍थान एल्‍यूमिनियम धातु का प्रयोग आरंभ कर दिया। उस समय से लेकर आज तक इस काम के लिए एल्‍यूमिनियम का ही प्रयोग किया जाता है। एल्‍यूमिनियम धातु के छल्‍लों के प्रयोग के पीछे कारण यह है कि ये छल्‍ले हल्‍के और सस्‍ते होते हैं। इसे पक्षियों को आसानी से पहनाया जा सकते हैं। यह पक्षियों के लिए बेहद सुरक्षित है। इन छल्‍लों पर वर्ष, क्रम संख्‍या, उस स्‍थान का नाम जहां पक्षी को छल्‍ला पहनाया गया था। बर्ड रिंगिंग की विधि आज पूरी दुनिया में अपनाई जाती हैं। दुनिया के असंख्‍य देशों में विभिन्‍न प्रजातियों के पक्षियों को नियमित रूप से आज छल्‍ले पहनाए जाते हैं और उनकी प्रवास यात्राओं के समय विवरण हासिल करने का प्रयास किया जाता है। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान समय में पूरे विश्‍व में प्रति वर्ष करीब 15 लाख पक्षियों को छल्‍ले पहनाए जाते हैं।

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3- प्रत्‍येक छल्‍ले पर अंग्रेजी भाषा में छल्‍ला पहनाने वाली संस्‍था व्‍यक्ति का नाम और पता, एक क्रम संख्‍या और पक्षी विशेष के लिए एक अंक लिखा होता है। इसके अलावा छल्‍ले पर संबंधित संस्‍था व्‍यक्ति को सूचना देने का अनुरोध भी होता है। महज छल्‍ले पहनाकर पक्षियों को खुले आकाश में मुक्‍त कर देने से पक्षी प्रवास की जानकारी हासिल नहीं होती है। इन पक्षियों पर कड़ी निगरानी रखना भी अपेक्षित होता है। लगभग हर देश में पक्षियों के प्रवास-पंथों पर अनेक पक्षी को छल्‍ला पहनाया गया है। उसे पकड़ पाना आमतौर पर संभव नहीं हो पाता है। ये पक्षी शायद ही कभी जिंदा पकड़े जाते हो अगर जिंदा पकड़ लिए भी जाते हैं तो आवश्‍यक जानकारी नोट करने के बाद उन्‍हें दोबारा छोड़ दिया जाता है।

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4- उन्‍होंने कहा कि परिंदों को छल्‍ले पहनाना अपने आप में एक कठिन और जटिल प्रक्रिया होती है। आमतौर पर कम उम्र के पक्षियों को छल्‍ले नहीं पहनाए जाते, क्‍योंकि उनके पैरों से छल्‍ले निकल जाते हैं। पक्षियों को छल्‍ले पहनाए जाने का उचित समय होता है प्रवास उड़ान से कुछ दिनों पहले का समय। आजकल तो पक्षियों को बड़े आकार का छल्‍ला भी पहनाया जाता है, ताकि उड़ान के समय दूरबीन की मदद से छल्‍ले पर अंकित सूचनाएं पढ़ी जा सके।

भारत में बर्ड रिंगिंग का हुआ प्रयोग

भारत में बर्ड रिंगिंग कार्यक्रम को मूर्त रूप देने का श्रेय बाम्‍बे नेचुरल सोसाइटी और सलीम अली जैसे समर्पित पक्षी वैज्ञानिकों को है। देश की आजादी के पूर्व 1926 में बर्ड रिंगिंग और अन्‍य आधुनिक तकनीकों के सहयोग से प्रवासी परिंदों का अध्‍ययन शुरू कर दिया था। मशहूर पक्षी वैज्ञानिक साल‍िम अली जीवन पर्यन्‍त पक्षी अध्‍ययन और बर्ड रिंगिंग जैसे प्रयासों में जी जान से लगे रहे। आर्थिक सहयोग के अभाव में उन्‍होंने आरंभ में स्‍वनिर्मित छल्‍ले पक्षियों को पहनाने का प्रयोग भी किया था। भरतपुर स्थित पक्षी विहार अंतरराष्‍ट्रीय बर्ड रिंगिंग केंद्र की स्‍थापना सालिम अली ने कराई थी।

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प्रवासी पक्षी कैसे करते हैं दिशा का निर्धारण

पक्षी अपने प्रवास के दौरान हजारों किलोमीटर लंबी दूरियों को पार करके नियत स्‍थान तक निश्चित समय पर पहुंचने के लिए मार्ग का दिशा निर्धारण कैसे करते हैं? यह बात वैज्ञानिकों के लिए जिज्ञासा और कौतुहलता का विषय रही है। सूर्य की दैनिक गति से आमतौर पर प्रवासी पक्षी दिशा ज्ञान प्राप्‍त करते हैं, लेकिन कभी-कभी सूर्य के आगे बादल आ जाते हैं तब ये पक्षी अपनी दिशा का निर्धारण कैसे करते हैं। यह माना जाता है कि जिस समय बादलों के कारण सूर्य दिखाई नहीं देता उस दौरान भौगोलिक या स्‍थलीय संकेतों महासागर, जंगल, प‍हाड़ को देखकर ये अपने गंतव्‍य की दिशा का ज्ञान प्राप्‍त करते ह

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