
लगभग एक साल बाद फिर से देश में बिजली संकट की आहट सुनाई दे रही है। कारण ताप विद्युत संयंत्रों के पास कोयले का अभाव हो गया है। देश में 165 ताप संयंत्र हैं जिनमें से लगभग 105 के पास न्यूनतम कोयला उत्पादन स्टाक नहीं है।
हमारे देश में दो-तिहाई से अधिक बिजली का उत्पादन कोयला आधारित है। इसके बावजूद अक्सर कोयले की कमी के हालात पैदा हो जाते हैं और समाधान के तौर पर सरकार कुछ समय के लिए युद्धस्तर पर कोयले के प्रबंधन में जुट जाती है। कुछ दिनों बाद व्यवस्था को छोड़ दिया जाता है। भविष्य में बिजली की मांग बढ़ेगी ही और यह भी तथ्य है कि यदि एक समावेशी बिजली नीति बनाई जाए तो इस तरह के हालात बार-बार पैदा नहीं होंगे, क्योंकि देश बिजली उत्पादन के क्षेत्र में समुन्नत क्षमताएं रखता है।
इस समस्या की जड़ बिजली में छिपी राजनीति है जो मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्व के रूप में स्थापित हो चुकी है। देश की बिजली वितरण कंपनियां करीब पांच लाख करोड़ रुपये के घाटे में चल रही हैं। कारण राज्यों में मुफ्त और रियायती दरों के नाम पर वोटों की राजनीति। नतीजन वितरण कंपनियां, बिजली उत्पादन कंपनियों (जेनको) के करीब डेढ़ लाख करोड़ के बकाये को नहीं चुका पा रही हैं। दूसरी तरफ जेनको कोयले के लिए कोल इंडिया या विदेश से आयातित कोयले पर निर्भर है। उधारी के चलते यहां भी मामला बुनियादी रूप से बिगड़ा हुआ है। देश में बिजली उत्पादन का 70 प्रतिशत ताप विद्युत यानी कोयले से ही होता है जो लगभग 200 गीगावाट है। इसके लिए रोजाना 22 लाख टन कोयले की जरूरत है, जबकि कोल इंडिया 16.4 लाख टन ही उत्पादन कर पा रहा है। साथ ही इस साल कोयले की मांग लगभग नौ प्रतिशत बढ़ चुकी है।
दूसरी तरफ भारत दुनिया का एक बड़ा कोयला आयातक देश भी है। वह आस्ट्रेलिया, चीन और इंडोनेशिया से करीब 20 करोड़ टन कोयला सालाना खरीदता है। ऊर्जा मंत्री बिजली घरों को आयातित कोयले का उपयोग बढ़ाने की सलाह दे रहे हैं, लेकिन रूस-यक्रेन युद्ध के कारण विदेशी कोयले की कीमत काफी बढ़ चुकी है। ऐसे में बिजली घरों ने अपना उत्पादन भारतीय कोयले पर केंद्रित कर दिया, जिससे बिजली संकट पैदा हुआ है। वहीं बिजलीघर महंगे कोयले से बिजली उत्पादन करना नहीं चाहते हैं, क्योंकि वितरण कंपनियां चुप हैं। बिजली वितरण कंपनियों की समस्या यह है कि वे केवल नाम की कंपनियां हैं, क्योंकि लागत के अनुरूप दर निर्धारित करने के लिए उन्हें राज्यों के मुख्यमंत्री पर निर्भर रहना होता है जो हमेशा चुनावी राजनीति में उलङो रहते हैं।यह भी पढ़ें
पूर्व में केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने विद्युत अधिनियम बनाकर राज्य के बिजली बोर्डो को कंपनियों में तब्दील इसलिए किया था, ताकि चरणबद्ध तरीके से बिजली वितरण, उत्पादन और पारेषण का कार्य कारोबारी मानकों के अनुरूप ढाला जा सके। परंतु लगभग 20 वर्षो के बाद भी बिजली का बुनियादी ढांचा व्यावसायिक मानकों पर आने के स्थान पर और भी अधिक जर्जर हो चुका है। इस दौरान लगभग पांच लाख करोड़ की रकम केंद्र सरकार ने राज्यों के वितरण तंत्र को सुदृढ़ करने के लिए जारी की है। इसके बावजूद आज भी 80 प्रतिशत राज्यों में बिजली की चोरी का आंकड़ा 60 प्रतिशत से कम नहीं है। भले ही कंपनियां इसे अपने आंकड़ों में एटी एंड सी लास यानी लाइन लास के रूप में 20 से 25 प्रतिशत दिखाती हैं, लेकिन यह सच्चाई नहीं है।
दूसरी तरफ बिजली उत्पादन के मामले में भी एक समावेशी नीति की आवश्यकता है, क्योंकि कोयले के उत्पादन से लेकर इसे संयंत्र तक पहुंचाने का काम केंद्र सरकार की दो एजेंसियों कोल इंडिया और भारतीय रेल द्वारा किया जाता है। राज्य अक्सर कोल इंडिया पर कोयला आपूर्ति नहीं करने का आरोप लगाते हैं, लेकिन राज्यों का प्रबंधन इस मामले में बेहतर नहीं है। ताजा आंकड़ों के अनुसार लगभग 30 हजार करोड़ की राशि विभिन्न जेनको का कोल इंडिया पर बकाया है जिनमें सर्वाधिक महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, बंगाल, राजस्थान, झारखंड जैसे राज्यों की है। इसके साथ ही 16 राज्य ऐसे हैं जो समय पर कोल इंडिया को अपनी मांग से अवगत नहीं कराते हैं, जो नियमानुसार तीन माह पूर्व देनी होती है। वहीं कई राज्य समय पर अपने कोयले का उठाव भी नहीं करते हैं जिसके चलते करीब एक दर्जन राज्यों पर कोल इंडिया जुर्माना भी लगा चुका है।
ऐसे में सवाल यह है कि क्या एक एकीकृत बिजली उत्पादन, पारेषण और वितरण की व्यवस्था को आकार देने का समय नहीं आ गया है? देश की व्यापक ऊर्जा जरूरतों को कोयले से पूरा करना भविष्य के लिए उपयुक्त कैसे कहा जा सकता है? साथ ही जो उलझाऊ तंत्र राज्य और केंद्र के मध्य बना हुआ है, उसके स्थान पर ‘वन नेशन वन ग्रिड’ जैसी व्यवस्था पर विचार क्यों नहीं किया जाना चाहिए? बेशक केंद्र सरकार ने बिजली ढांचे में सुधार के लिए अपेक्षित कदम उठाए हैं, लेकिन राज्यों की मंशा इस मामले में सुधारात्मक न होकर इसके माध्यम से राजनीतिक हितपूर्ति अधिक है। वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर पिछले 10 वर्षो में बेहतर कार्य हुआ है, परंतु हमारी उपलब्ध क्षमता के अनुरूप यह बहुत कम है।
वर्ष 2021-22 में हमारे कुल बिजली उत्पादन में 12.82 प्रतिशत अक्षय ऊर्जा का हिस्सा रहा है। सरकार ने वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट (एक गीगावाट यानी एक हजार मेगावाट) अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य रखा है। स्वाधीनता के 75 वर्षो के बाद भी भारत में सरकारी उपक्रमों द्वारा बिजली का इतना उत्पादन नहीं किया जाता है जिससे देश की जरूरत को पूरा किया जा सके। ताजा आंकड़ों के अनुसार कुल तीन लाख 99 हजार 497 मेगावाट बिजली क्षमता में से एक लाख 95 हजार 637 मेगावाट का उत्पादन निजी क्षेत्र में हो रहा है। केंद्र के हिस्से की 99 हजार मेगावाट बिजली हटा दें तो कुल उत्पादन का एक चौथाई ही राज्यों के संयंत्र कर पा रहे हैं। ऐसे में अहम सवाल फिर एक समावेशी नीति का ही खड़ा होता है जो उत्पादन और वितरण को एक व्यावहारिक धरातल पर ला सके।