घातक सिद्ध होती आगे निकलने की होड़, अब आत्महत्याओं के लिए कुख्यात हो रहा कोटा शहर

 


डा. विशेष गुप्ता : छात्रों द्वारा की गई आत्महत्याओं से जुड़ी नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट हाल में आई है। इसके अनुसार 2022 में छात्रों ने सबसे अधिक आत्महत्याएं की हैं। 2021 के मुकाबले छात्रों की आत्महत्याओं में इस साल 4.5 प्रतिशत वृद्धि दर्ज हुई। आंकड़े यह भी बताते हैं कि 2016 से 2021 के बीच छात्र आत्महत्या के मामलों में 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस साल महाराष्ट्र और तमिलनाडु की तुलना में छात्रों ने राजस्थान के कोटा में सबसे अधिक आत्महत्याएं की हैं।

इस साल अकेले कोटा में ही अब तक 15 आत्महत्याएं हुई हैं। विगत एक सप्ताह में वहां प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे तीन नाबालिग छात्रों ने परीक्षा के दबाव में आत्महत्या कर ली। उनमें दो बिहार से थे और कोटा में आसपास रहते हुए इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। इन दोनों ने फांसी लगाकर जान दी। तीसरा छात्र मध्य प्रदेश से था, जो नीट परीक्षा की तैयारी कर रहा था। उसने जहर खाकर जान दे दी। निश्चित ही देश एवं समाज के सामने यह गंभीर चिंता का विषय है।

सच यह है कि विगत चार दशकों में कोटा में कोचिंग संस्थान एक उद्योग का रूप ले चुके हैं। इसका कुल सालाना बजट तकरीबन दो से तीन हजार करोड़ रुपये का है। कोटा के ये कोचिंग संस्थान आज लाखों की रोजी-रोटी का साधन तो बने ही हैं। साथ ही देश के तमाम टेक्नोक्रेट अपने-अपने सम्मानजनक तकनीकी संस्थान छोड़कर आज इन संस्थानों से जुड़ रहे हैं। कोटा में ऐसी फैकल्टी का वेतन 20 से 30 लाख रुपये सालाना है, लेकिन ऐसा लगता है जैसे कोटा परीक्षा की तैयारियों के साथ-साथ अब आत्महत्याओं का हब भी बन रहा है। कोटा में जिस प्रकार बच्चों में आत्महत्या करने का ग्राफ बढ़ रहा है उससे अब कोटा की कोचिंग व्यवस्था पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। पिछले पांच वर्षों में कोटा में 77 बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं। कोटा पुलिस से जुड़े आंकड़े बताते हैं कि 2011 में छह, 2012 में 11, 2013 में 26, 2014 में 14, 2015 में 20, 2016 में 17, 2018 में 19 तथा 2019 में 18 बच्चों ने खुदखुशी की। कोटा की कोचिंग व्यवस्था को देखकर भविष्य में इन घटनाओं के और अधिक बढ़ने की आशंका है।कोटा में हर वर्ष तकरीबन डेढ़ लाख किशोर विभिन्न कोचिंग संस्थानों में प्रवेश लेते हैं। उनका सपना उच्च प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने और उसको उत्तीर्ण करने से जुड़ा होता है। उनकी कोचिंग पर प्रत्येक अभिभावक हर वर्ष औसतन ढाई से तीन लाख रुपये खर्च करते हैं। कई मामलों में अभिभावक कोचिंग की फीस बैंक या अन्य जगहों से ऋण लेकर भी चुकाते हैं। इसलिए कई बार कोचिंग से जुड़े ये छात्र अपने परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति को लेकर भी काफी दबाव में रहते हैं।

कई अध्यापक कोचिंग में अच्छा प्रदर्शन करने वाले प्रतियोगी छात्रों को अग्रिम पंक्ति में बैठाकर उन पर अधिक ध्यान देते हैं। दूसरी ओर जो छात्र कोचिंग में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते, उनके साथ बहुत डांट-डपट करते हैं। देखने में आया है कि कभी-कभी अध्यापक ऐसे कमजोर बच्चों का बैच भी अलग कर देते हैं। कई बार कोचिंग संचालक एवं शिक्षक ऐसे कमजोर बच्चों के अभिभावकों को केंद्र पर बुलाकर उनकी कमियों को सबके सामने उजागर करते हैं और उन्हें वापस ले जाने की बिन मांगी सलाह भी देते हैं।

कहने की जरूरत नहीं कि भय का यह मनोविज्ञान इन बच्चों को निराशा से भर देता है। अपने परिवारों से दूर रहकर कोचिंग करने वाले ये छात्र एक अनजान और नए परिवेश को आत्मसात करने में भी कठिनाई महसूस करते हैं। साथ ही प्रतियोगिता की तीव्र होड़ से उपजने वाली निराशा को कम करने में परिवार और कोचिंग संस्थानों से संवाद का अभाव उन्हें अपने जीवन से हारने को मजबूर करता है। रही-सही कसर बाकी प्रतियोगी छात्रों की असफलता पूरा कर देती है। असल में इन प्रतियोगी परीक्षाओं में कोचिंग के बावजूद सफलता का प्रतिशत लगभग 10 प्रतिशत के आसपास ही रहता है।

केंद्र सरकार ने कोटा में इन प्रतियोगी छात्रों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति का अध्ययन करने के लिए छह सदस्यीय समिति का गठन भी किया था, परंतु हाल-फिलहाल इन बच्चों को इस दबाव और तनाव से मुक्त करने के लिए जरूरी यह है कि ये कोचिंग संस्थान अपने यहां एक मनोचिकित्सक के साथ-साथ एक काउंसलर और फिजियोलाजिस्ट की भी भर्ती करें। साथ ही इन बच्चों के अभिभावकों की भी काउंसिलिंग करें, जिससे वे अपने बच्चों की समय-समय पर कार्य निष्पादन क्षमता को जान सकें। इसके साथ-साथ इन बच्चों को लगातार कोचिंग के बीच में कुछ समय उनको मुक्त करते हुए योगाभ्यास इत्यादि से जोड़ना भी बहुत जरूरी है। छात्रों की लगातार चिकित्सा जांच के साथ उनके मनोरंजन की व्यवस्था और उनके कोचिंग शुल्क में भी किस्तों की व्यवस्था करने से बच्चों के मानसिक दबाव में कमी आने की संभावना है।

वर्तमान गलाकाट प्रतिस्पर्धा के इस दौर में व्यक्तिगत लक्ष्य प्राप्ति की होड़ शैक्षिक संवेदनाओं को निगल रही है। रातों-रात लक्ष्य प्राप्ति की होड़ ने तो शैक्षिक मूल्यों को ही ध्वस्त कर दिया है। ऐसे में माता-पिता की जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने बच्चों की शैक्षिक क्षमता का समय रहते आकलन करें। यह इन कोचिंग संस्थानों की भी जिम्मेदारी है कि वे खुद कोचिंग की इस व्यवसायी संस्कृति से बाहर आकर इन छात्रों को भी इस उपभोक्ता बाजार के चंगुल से बाहर निकालें और सच्चे अभिभावक की भूमिका अदा करें। तभी ये बच्चे कोचिंग के दबाव से बाहर निकलेंगे और उनके सुरक्षित और सुखद भविष्य का सपना साकार हो सकेगा।