बम है ग्लोबल वार्मिंग, पहाड़ बन चुके हैं हिरोशिमा; संरक्षक झेल रहे वार

 

स्पीति घाटी में आसमान से बरसी आफत के दौरान बचाव कार्य करता आपदा प्रबंधन दल।

आज लगभग सभी पर्वतीय राज्य हिमाचल प्रदेश या जम्मू-कश्मीर अथवा लद्दाख बादल फटने के दुष्परिणामों को झेल रहे हैं। कैसी विडंबना है कि प्रकृति के जिस कोप को वो झेलते हैं उसमें उनकी कहीं भी कोई भूमिका नहीं होती...

 अब हिमालय के लोग बारिश का स्वागत नहीं कर पाते। उत्तराखंड हो, हिमाचल प्रदेश या जम्मू-कश्मीर अथवा लद्दाख, पश्चिमी हिमालय के सभी पर्वतीय राज्य बादल फटने के दुष्परिणाम झेल रहे हैं। पिछले दो दशक से पहाड़ के लोग सावन को शापित होता देख रहे हैं। हाल ही में जम्मू-कश्मीर में लगभग पांच जगहों पर बादल फटने के कारण बड़े नुकसानों की खबरें आईं। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भी बादल फटने से जीवन बड़े संकट में जा चुका है।

भगवान अमरनाथ में भी इस बार जमकर बारिश हुई। हालांकि यहां अब तक हुई बारिश ने किसी की जान तो नहीं ली, पर केदारनाथ की त्रासदी को ताजा अवश्य कर दिया। हालांकि जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ का होंजर गांव अमरनाथ जितना खुशकिस्मत नहीं रहा। होंजर गांव लगभग पूरी तरह से बर्बाद हो गया है, जहां 36 लापता लोगों की खोज अभी भी जारी है। इसी तरह कारगिल हो अथवा लद्दाख, इन सभी जगहों पर बादल फटने से जान-माल का नुकसान हुआ है। हिमाचल प्रदेश में भी लगभग इसी तरह बादल फटने से नौ लोगों की मृत्यु होने की खबर है।

मानव गतिविधियां ही जिम्मेदार: इन स्थितियों को विस्तार से बताने का कारण एक ही है कि आज यह हाल औद्योगीकरण, गाड़ियों की बढ़ती संख्या, विलासितापूर्ण जीवनशैली से वायुमंडल में अवांछनीय गैसों के उत्पन्न होने से हुआ है। ये बढ़ते वायुमंडल तापक्रम का कारक हैं। कार्बनडाइ आक्साइड, मीथेन, सल्फरडाइ आक्साइड वो गैसें हैं जो किसी भी क्षेत्र, स्थान, शहर विशेष में मानवीय गतिविधियों के कारण बढ़ती हैं। इतना ही नहीं, अगर दुनिया में 1.5 अरब टन अन्न बर्बाद होता है तो इसे यहीं तक न समझें। क्योंकि पृथ्वी में 10 प्रतिशत मीथेन का कारण यही बर्बाद होता अन्न है।

संरक्षक झेल रहे वार: सर्वविदित है कि हिमालय व हिमालय के लोग प्रकृति संरक्षण के लिए दुनियाभर में जाने जाते हैं। वे व्यावहारिक रूप में नदी, मिट्टी, हवा, पानी के संतुलन में बड़ी भूमिका रखते हैं। कैसी विडंबना है कि जिस प्रकृति के दुष्परिणामों को वो झेलते हैं उसमें उनकी कहीं भी भागीदारी या भूमिका नहीं होती। प्रकृति के बिगड़ते हालात मात्र हिमालय ही नहीं, सारी दुनिया झेल रही है। आज सभी देश प्रकृति के रौद्र रूप की मार से पीड़ित हैं। विडंबना यह है कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन मुद्दों पर लगातार बहस हो रही है, लेकिन स्थिति वही ‘ढाक के तीन पात’। प्रकृति का संरक्षण तो दूर, हालात और बिगड़ रहे हैं।

प्राणतत्व ले रहे प्राण: आज दूर से बैठकर पहाड़ों के गंभीर हालातों को लेकर संवेदनशीलता दिखाने मात्र से काम नहीं चलने वाला, सवाल इन पर्वतचोटियों की संवेदनशीलता का है। सब ऐसा ही रहा तो प्रकृति किसी को नहीं बख्शेगी। यह शुरुआत है, कहीं पानी की मार पड़ रही है तो कहीं हवा की। प्राणतत्व कहे जाने वाले हवा-पानी ही आज जान लेने को उतारू हैं और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमने पृथ्वी और प्रकृति के इशारों को बेहतर तरीके से समझने की कोशिश नहीं की। प्रकृति के इन आपदारूपी इशारों का मतलब साफ है कि हम पृथ्वी में नही पल रहे है, बल्कि एक बड़ी आपदा को पाल रहे है।

आसमान से बरस रही आफत: पिछले दो दशक से हर साल मानसून में हिमालय के लगातार यही हाल रहे हैं। मतलब हिमालय अतिवृष्टि का एक बहुत बड़ा गढ़ बन चुका है। अतिवृष्टि यानी क्लाउड बस्र्ट या एक साथ पानी का गिरना। जब करीब 100 मिलीमीटर पानी एक ही घंटे में बरस जाता है तो ऐसा लगता है कि जैसे आसमान फट कर गिर गया हो और यही कारण है कि स्वीडन में इसको स्काई फाल भी कहते हैं। इसके वैज्ञानिक कारणों के पीछे पृथ्वी के बढ़ते तापक्रम को माना जाता है। इसको वैज्ञानिक भाषा में ओरेनोग्राफी कहते हैं यानी जब-जब मैदानी तापक्रम बढ़ता है इससे उत्पन्न वाष्पोत्र्सजन हवाओं के साथ ऊपरी इलाकों का रुख करता है। जहां तापक्रम के गिरने के कारण एक साथ इतनी वर्षा पड़ती है। इसे ही अतिवृष्टि कहते हैं। इस तरह की घटनाओं के पीछे का सबसे बड़ा कारण ग्लोबल वार्मिंग का लगातार बढ़ना है। जलवायु परिवर्तन भी मानसून की दिशा को भटका देता है। यह उमस की स्थिति को पैदा करता है और जब यह उमस पहाड़ों का रुख करती है तब अतिवृष्टि के रूप में कहर ढाती है। मतलब इसको ऐसा भी कहा जा सकता है कि ग्लोबल वार्मिंग अगर एक बम है तो पहाड़ हिरोशिमा बन चुके हैं।