जेनेटिकली माडिफाइड बीज की मदद से देश में कपास के उत्पादन में हुई व्यापक बढ़ोतरी

 

Innovation in food production: खाद्यान्न उत्पादन में नवाचार। फाइल फोटो

देश की बढ़ती जनसंख्या के बीच खाद्यान्न की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हमें खेती से संबंधित नवाचारों की ओर भी ध्यान देना चाहिए ताकि अनाज का उत्पादन बढ़ाया जा सके। जीएम बीज की मदद से देश में कपास के उत्पादन में हुई है व्यापक बढ़ोतरी।

 भविष्य में भारत सहित समस्त विश्व के सामने खाद्यान्न संकट से निबटने की बड़ी चुनौती होगी। वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी 9.3 अरब तक पहुंचने का अनुमान है। इतनी बड़ी आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए वर्तमान में होने वाले कुल वैश्विक उत्पादन की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक खाद्यान्नों के उत्पादन की जरूरत पड़ेगी। धरती की घटती उर्वरा शक्ति के साथ साथ जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निबटते हुए उत्पादन लक्ष्यों को प्राप्त करना सभी देशों के लिए मुश्किलों का सबब बनने वाला है। जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक दुष्प्रभाव जिन देशों पर पड़ सकता है, उसमें भारत सबसे संवेदनशील देशों वाले वर्ग में आता है। वर्ष 2050 तक भारत की आबादी 1.7 अरब होने का अनुमान है और देशवासियों की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए वर्तमान उत्पादन की तुलना में इसे कम से कम 32 प्रतिशत बढ़ाना होगा।

मुश्किलों की एक झलक हमें इसी वर्ष देखने को मिल रही है, जब आश्चर्यजनक रूप से गर्मी ने मार्च-अप्रैल में ही अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए। नतीजा फरवरी तक जिस गेहूं के रिकार्ड उत्पादन की उम्मीद की जा रही थी और जिसके बल पर रिकार्ड निर्यात की योजना बनाई जा रही थी, मई आते आते कम उत्पादन के कारण उस पर पानी फिर गया। घरेलू आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पादन का अनुमान लगाते हुए गेहूं के निर्यात पर रोक लगाने की घोषणा कर दी गई।

जीएम फसलें : जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करते हुए और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देते हुए खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि की चुनौती बड़ी है, लेकिन जीएम (जेनेटिकली माडिफाइड) यानी अनुवांशिक रूप से संशोधित कृषि उत्पादन तकनीक से उम्मीद जगती है। इस तकनीक से फसलों को जहां कीट, बीमारी और खरपतवार रोधी बनाए जाने में सफलता प्राप्त हुई है, वहीं मौसम जनित विषमताओं को ङोलने में भी आसानी हुई है। एक दशक पूर्व विकसित ‘सब 1 ए’ प्रकार के धान का पौधा बाढ़ और सूखे दोनों प्रकार की परिस्थितियों को ङोलने में सक्षम है, वहीं ‘गोल्डन राइस’ विटामिन ए से भरपूर है। चूंकि बीजों को विकसित करने के दौरान ही उनके जीन में परिवर्तन कर उन्हें कीट और खरपतवार रोधी बना दिया जाता है, इसलिए पूरे फसल चक्र के दौरान इन पर रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव की या तो जरूरत ही नहीं पड़ती या बहुत कम पड़ती है। इस पद्धति से की जाने वाली खेती में बीज बोने के लिए खेतों की बहुत अधिक जोताई करने की जरूरत भी नहीं पड़ती है जिससे पेट्रो पदार्थो की खपत और प्रदूषक गैसों के उत्सर्जन में भी कमी आती है। रसायनों के न्यून प्रयोग के कारण पर्यावरण संरक्षण और मानव स्वास्थ्य के लिहाज से भी यह प्रभावी है।

यही कारण है कि वर्ष 1996 तक दुनियाभर में जीएम फसलों का कुल रकबा जहां 17 लाख हेक्टेयर था, वहीं 2019 आते आते यह बढ़कर एक करोड़ 94 लाख हेक्टेयर तक हो गया। भारतीय किसानों ने भी बीटी काटन के प्रयोग से भरपूर उत्पादन प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है। काटन यानी कपास उत्पादकों ने बीटी बीज की मदद से उत्पादन में 22 प्रतिशत की वृद्धि और मुनाफे में 68 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की, जबकि इसी दौरान रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग में 37 प्रतिशत की कमी हुई। बीटी काटन की सफलता से उत्साहित भारतीय कृषि विज्ञानियों ने वर्ष 2009 में ही बीटी बैंगन भी तैयार कर लिया। व्यापक परीक्षण के बाद खाद्य नियायम प्राधिकरण द्वारा इसका अनुमोदन भी किया गया, लेकिन किसान अब तक इसके वाणिज्यिक उत्पादन के लिए सरकारी हरी झंडी के इंतजार में है।

दरअसल भारत में जीएम फसलों का मुद्दा खाद्यान्न आपूर्ति से ज्यादा राजनीतिक बन चुका है। यह साबित करने का अनवरत प्रयास चल रहा है कि जीएम खाद्य पदार्थ मानव स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है। इसे विदेशी बीज उत्पादकों के मुनाफे से जोड़कर भावनाओं को भड़काने का काम किया जा रहा है। कुछ सामाजिक संगठनों, कृषि विशेषज्ञों, कीटनाशक उत्पादकों की लाबी आदि के दबाव में सरकार जीएम फसलों के वाणिज्यिक उत्पादन की अनुमति नहीं दे पा रही है। जबकि संबंधित वैज्ञानिक अध्ययनों में इन फसलों की सुरक्षा का आकलन किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूरोपीय आयोग और रायल सोसाइटी आफ मेडिसिन सहित वैश्विक स्तर के 284 संस्थान जीएम फसलों को मानव और पर्यावरण के लिए सुरक्षित मानते हैं।

वर्ष 2016 में नेशनल एकेडमी आफ साइंसेज, इंजीनियरिंग और मेडिसिन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि गैर जीएम फसलों की तुलना में जीएम उत्पाद स्वास्थ्य के लिए जोखिम पैदा नहीं करते हैं। सेंटर फार सिविल सोसायटी द्वारा किए गए एक अध्ययन में देश में जीएम फसलों के संदर्भ में ऐसे कुछ विनियामक बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है जो चिंताजनक हैं। अध्ययन में बताया गया है कि किस प्रकार जैव प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार निकायों के अनुमोदन प्रक्रिया का हिस्सा होने के कारण विनियमन वाली व्यवस्था में हितों का टकराव होता है। अध्ययन के दौरान पाया गया है कि प्रसंस्करण की मंजूरी के लिए अलग से नियामक तंत्र होने के बावजूद जीएम फसलों के संबंध में अंतिम मंजूरी पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रलय के विवेक पर निर्भर करता है। ऐसे बहुत से कारक हैं जिनसे इसकी मंजूरी में विलंब हो रहा है। लिहाजा संबंधित मंत्रलयों को इस दिशा में सम्यक निर्णय लेना चाहिए।