किसी देश के स्वावलंबन और आर्थिक विकास में शिक्षा अहम कारक

 

भारत में शिक्षा में सुधार तथा नवाचार की इस यात्रा का विश्लेषण कर रहे हैं जगमोहन सिंह राजपूत...

New National Education Policy किसी देश के स्वावलंबन और आर्थिक विकास में शिक्षा अहम कारक है। स्वाधीनता के बाद बदलती सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं के अनुसार भारत में शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति में समय-समय पर संशोधन और उन्नयन होते रहे।

 1947 में सत्ता हस्तांतरण के बाद भारत को विरासत में एक प्रत्यारोपित शिक्षा व्यवस्था प्राप्त हुई, जिसका घोषित उद्देश्य विदेशी शासकों के लिए नीचे दर्जे के शिक्षित सहायक तैयार करना मात्र था। जब यह व्यवस्था भारत पर थोपी गई, तभी से यह सर्वविदित हो चुका था कि इसका अंतर्निहित उद्देश्य भारत की परंपरागत शिक्षा व्यवस्था के सुंदर वृक्ष की जड़ें खोदकर उसे नष्ट होने के लिए छोड़ देना था! उच्च शिक्षा में केवल 20 विश्वविद्यालय, 496 महाविद्यालय थे जिन सबमें केवल 2,41,369 विद्यार्थी पढ़ते थे। आज 1,047 विश्वविद्यालय, 44 हजार महाविद्यालय और 27.8 प्रतिशत का नामांकन अनुपात है। उस समय केवल 2.38 लाख स्कूल और 7.51 लाख अध्यापक थे। जनसंख्या केवल 30 करोड़ के आस-पास थी। आज 140 करोड़ से अधिक की जनसंख्या है, जिसमें 26 करोड़ बच्चे 15 लाख स्कूलों में हैं और 96.8 लाख अध्यापक हैं। 18-20 प्रतिशत की साक्षरता दर से प्रारंभ कर लगभग 80 प्रतिशत तक पहुंचना- जबकि आबादी चार गुने से ज्यादा बढ़ी हो- अद्वितीय उपलब्धि है। 

संविधान का संरक्षण

भारत के स्वाधीनता संग्राम का वरिष्ठ नेतृत्व बहुत पहले ही यह समझ गया था कि अंतिम पंक्ति में खड़े लोगों के उद्धार की आशा की किरण केवल एक है- सभी के लिए अच्छी गुणवत्ता तथा उपयोगी कौशल प्रदान करने वाली शिक्षा। संविधान में अनुच्छेद-14 का शामिल किया जाना और अत्यंत विषम परिस्थितियों में भी 14 साल तक के हर बच्चे को 10 वर्ष के अंदर निश्शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उत्तरदायित्व सरकारों को सौंपना साहसिक कदम था। सरकार के समक्ष अनेक चुनौतियां इस क्षेत्र में उपस्थित थीं- बच्चों की पहुंच में स्कूल का होना, प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति और जो शिक्षा मिले, वह जीवनोपयोगी भी हो।

विसंगतियों के अनुत्तरित प्रश्न

इस प्रश्न का उत्तर अभी भी तलाशा जा रहा है कि गांधी जी की संकल्पना की बुनियादी शिक्षा- जिसे 1947 के बाद सरकारी संरक्षण प्राप्त था, जो चरित्र निर्माण, शारीरिक श्रम और स्थानीय कौशलों पर ध्यान देती थी, विलुप्त क्यों हो गई? स्पष्टत: सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि सत्ता में बैठे और निर्णय लेने के लिए अधिकृत लोग शारीरिक श्रम की व्यवस्था से सहमत नहीं थे, वे अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की उपज थे और उसी से प्रभावित! उन्हें गुरुदेव टैगोर की शिक्षा प्रणाली भी पसंद न थी।

डा. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में 1964-66 में बने राष्ट्रीय शिक्षा आयोग- कोठारी कमीशन ने स्थिति का गहन विवेचन किया और पाया कि शिक्षा में आर्थिक-सामजिक-सांस्कृतिक वर्गभेद उपस्थित हैं। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों के प्रवेश के लिए पालक कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। कोठारी कमीशन की संस्तुति पर बनी 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने समान स्कूल व्यवस्था लागू करने की अनुशंसा स्वीकृत की थी, ताकि समानता के अवसर व्यावहारिक स्तर पर हर बच्चे को मिलें, मगर स्थिति इसके उलट ही बनती चली गई।

आज निजी स्कूल उच्च/समृद्ध वर्ग के बच्चों के लिए उपलब्ध हैं, वे ऊंची फीस देकर शिक्षा खरीद सकते हैं। सामान्यजन के लिए सरकारी स्कूल हैं जिनमें हर प्रकार की कमी गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। निजीकरण व्यापारीकरण में परिवर्तित हो चुका है। सरकारी स्कूलों की साख तथा स्वीकार्यता निम्नतम स्तर पर है। अधिकांश वही बच्चे इनमें जाते हैं जिनमें निजी स्कूलों की भारी फीस दे पाने की क्षमता नहीं है। व्यावसायिक शिक्षा पर 1968 की संस्तुतियां साकार नहीं हो सकीं, न ही परीक्षा पद्धति में कोई आमूल-चूल परिवर्तन हो पाया। उस समय यह संस्तुति क्रांतिकारी मानी गई थी कि कक्षा 10 तक सभी विद्यार्थी- विज्ञान और गणित अनिवार्य रूप से पढें़गे। यह वो समय था जब आम धारणा यह थी कि लड़कियों को कक्षा छह के बाद कताई-बुनाई, गृह विज्ञान जैसे विषय पढ़ने चाहिए क्योंकि गणित तथा विज्ञान उनके लिए अत्यंत कठिन हैं। अधिकांश लोग लड़कियों को स्कूल तक भेजने को तैयार नहीं थे। क्रियान्वयन के स्तर पर यह बड़ी सफलता है कि आज करोड़ों लड़कियों ने विज्ञान, तकनीकी और गणित में नाम कमाया है।

मान बढ़ाया देश का

स्वाधीनता के शुरुआती 15-20 वर्ष में सराहनीय भविष्य दृष्टि के कारण उच्च शिक्षा में न केवल नए विश्वविद्यालय तथा महाविद्यालय स्थापित किए गए, बल्कि देश ने आइआइटी, आइआइएम, सीएसआईआर, भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर, इसरो जैसे अनेक उच्चतम स्तर के संस्थान भी खोले। इसके लिए डा. होमी जहांगीर भाभा, डा. शांति स्वरूप भटनागर, डा. विक्रम साराभाई जैसे विज्ञानियों की सोच और समझ के प्रति देश को अनुग्रहीत होना चाहिए। इन संस्थानों से निकले युवाओं ने देश का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान बढ़ाया और आज भी यह सिलसिला जारी है। बीसवीं शताब्दी के छठे तथा सातवें दशक में अमेरिकी अंतरिक्ष विज्ञान संस्था नासा और पिछले दो दशक में सिलिकन वैली में भारतीय युवाओं नें अपनी उपस्थिति से भारत का मान बढ़ाया है। 1986 की शिक्षा नीति बनाते समय कंप्यूटर का युग प्रारंभ हो चुका था। प्रतिभाशाली ग्रामीण बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय की संकल्पना और स्थापना अत्यंत सराहनीय कदम था। विचार राजीव गांधी का था, लेकिन इन्हें नाम दिया गया जवाहर नवोदय विद्यालय। संचार तकनीकी के क्षेत्र में भारी उपलब्धियां और उनकी संभावनाएं दस्तक दे रही थीं। 1992 में इस नीति का पुनरावलोकन किया गया।

शिक्षा में निजी क्षेत्र का वर्चस्व

बीच के छोटे अंतराल में ही यह स्पष्ट हो चुका था कि जिस तेजी से शिक्षा में प्रसार हुआ है, वह आवश्यक तो था, लेकिन इस प्रक्रिया में गुणवत्ता की कमी लगातार होती गई। एक अन्य कारण भी स्पष्ट होने लगा था- निजी क्षेत्र में शिक्षा अब व्यापार बन चुकी थी, निजी निवेशक संस्थाएं खोलकर बड़ी संख्या में शिक्षा जगत में संरचनात्मक परिवर्तन कर रहे थे। उनका मुख्य उद्देश्य लाभांश में लगातार वृद्धि करना ही था। संख्या बल में बढ़ रहे मध्यम वर्ग को निजी स्कूल और अंग्रेजी माध्यम ही चाहिए थे, अत: उनकी संख्या तेजी से बढ़ी और उसी अनुपात में फीस तथा उनके लाभांश बढे़। जो लोग सरकारी स्कूलों की दशा के लिए ऊपर से नीचे तक जिम्मेवार थे, उन सबके बच्चे भी निजी स्कूलों में ही पहुंच चुके थे।

इतना ही नहीं, अपात्र निजी संस्थान ‘विशेषज्ञों की निरीक्षण समितियों’ की संस्तुति के आधार पर हजारों की संख्या में खुले। इससे शिक्षा जगत का एक अस्वीकार्य चेहरा सामने आया। भारत के सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने 2012 में लिखा कि दस हजार शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान केवल व्यापार कर रहे हैं, उनकी गुणवत्ता में कोई रुचि नहीं है। यह स्थिति केवल शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों तक सीमित नहीं है, बड़ी संख्या में अन्य व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों पर भी लागू होती है।

उन्नत भविष्य की सुदृढ़ नींव

चार साल के सघन परिश्रम के पश्चात निर्मित नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी-2020) सूचना-संचार-तकनीकी के आलोक में हो रहे सघन परिवर्तनों के साए में बनी थी। नीति निर्माताओं के समक्ष सात दशकों का अनुभव था, उन्होंने सारे देश में अभूतपूर्व विचार विमर्श के पश्चात यह नीति बनाई। इसका उद्देश्य ‘अच्छे इंसानों का विकास करना’ है -जो तर्कसंगत विचार और कार्य करने में सक्षम हों, जिसमें करुणा और सहानुभूति, साहस और लचीलापन, वैज्ञानिक चिंतन और रचनात्मक कल्पनाशक्ति, नैतिक मूल्य और आधार हों।’ एक ‘मजबूत, जीवंत सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली’ की संकल्पना करते हुए इसमें पर्याप्त निवेश और साथ ही साथ परोपकारी निजी और सामळ्दायिक भागीदारी की अपेक्षा की गई है। एनीईपी-2020 में इस तथ्य के महत्व को स्वीकार किया गया है कि बच्चों के मस्तिष्क का 85 प्रतिशत विकास छह वर्ष की आयु के पहले ही हो जाता है। इसके लिए आवश्यक संरचनात्मक परिवर्तन सुझाए गए हैं। एक बड़ा परिवर्तन परीक्षा प्रणाली में अपेक्षित है, सतत् मूल्यांकन को वर्ष के अंत में होती आ रही परीक्षा से अधिक महत्व देना स्वीकार किया गया है। इससे बस्ते का बोझ, परीक्षा का तनाव तथा प्रतिस्पर्धा के दबाव से बच्चों को मुक्ति मिलने की पूरी संभावना है।

बचपन से मिलें सीखने के संस्कार

भविष्य की शिक्षा को भारत की जड़ों और उसके गौरव से जुड़ना होगा। बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा में विचारों, संकल्पना शक्ति, जिज्ञासा तथा सर्जनात्मकता को बढ़ावा देना होगा। यह सिद्ध हो चुका है कि आत्मविश्वास से ओत-प्रोत युवा नवाचार अवश्य करेंगे, जो आत्मनिर्भर भारत को आगे बढ़ाएगा। चुनौतियां अनेक हैं। अध्यापकों के रिक्त पदों पर नियमित नियुक्तियां, सरकारी स्कूलों की साख वापस लाने के भागीरथ प्रयास की स्वीकार्यता, हर स्तर के संस्थानों में अनुकरणीय कार्य संस्कृति को वापस लाना और प्रत्येक अध्यापक को यह विश्वास दिलाना कि वही राष्ट्र निर्माता है और भावी पीढ़ी को मानवीय मूल्य अंतर्निहित करने में वही सहायक हो सकता है। भारत की संस्कृति में प्राचीन काल से स्वीकार्य अवधारणा- ‘यावद्जीवैत अधीयते विप्र:’ आज सारे विश्व में ‘लाइफलांग लर्निंग’ के रूप में स्वीकार्य है। अत: बच्चों को यह सिखाना है कि वे जीवन के अनेक पड़ावों पर नया ज्ञान और कौशल सीखने के लिए प्रारंभ से ही मन:स्थिति कैसे बनाएं। एनीईपी-2020 की सराहना देश में ही नहीं विदेश में भी हुई है। इसमें भारत के संदर्भ में वैश्विक परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा गया है। देश के पास क्रियान्वयन के लिए मानवीय-शक्ति और आवश्यक ज्ञान-पूंजी उपलब्ध है। आर्थिक स्तर पर निवेश की आवश्यकता है। उचित शिक्षा से ही हम अगली पीढ़ी को आत्मनिर्भर बना सकते हैं। हर स्तर पर कर्मठता और लगनशीलता से किया गया क्रियान्वयन सफलता अवश्य दिलाएगा।