![राष्ट्रपति चुनाव के बहाने फिर उठी विपक्षी एकता की बात। फाइल](https://www.jagranimages.com/images/newimg/15062022/15_06_2022-president_election_22805728.jpg)
राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी दलों की अगुआई करने की कांग्रेस जो रणनीति बना रही थी उसे एक ही झटके में ममता ने क्यों तोड़ दिया? ऐसे में क्या विपक्षी एकता बन पाएगी? इसका जवाब जल्द ही मिल जाएगा।
कोलकाता। राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा के साथ ही सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी रणनीति बनाने में जुट गए हैं। इसी बीच रायसीना की इस रेस में बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने अपनी चाल से कांग्रेस समेत कई दलों को चौंका दिया है। ममता ने आज दिल्ली में विपक्षी दलों की बैठक बुलाई है। इसके पीछे उनकी बड़ी रणनीति प्रतीत होती है। अब देखने वाली बात होगी कि ममता इसमें कितनी कामयाब हो पाती हैं। वैसे यह पहली बार नहीं है, जब वह राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश कर रही हैं।
इससे पहले वर्ष 2012 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के खिलाफ समाजवादी पार्टी के तत्कालीन प्रमुख मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर उन्होंने विपक्षी दलों की तरफ से प्रत्याशी उतारने का प्रयास किया था, लेकिन मुलायम सिंह के यू-टर्न ने उन्हें अपने उद्देश्य में सफल नहीं होने दिया था। इसके बाद 2017 में भी उनकी कोशिश परवान नहीं चढ़ी। यही नहीं, वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले भी उन्होंने विपक्षी दलों को साथ लाने की पहल की थी, पर नतीजा सर्वविदित है। अब एक बार फिर उन्होंने विपक्षी एकता की धुरी बनकर राष्ट्रीय फलक पर छाने की उम्मीद लिए कदम आगे बढ़ाया है।
तृणमूल सुप्रीमो ने बैठक में शामिल होने के लिए गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों समेत 22 विपक्षी नेताओं (जिसमें सोनिया गांधी भी शामिल हैं) को व्यक्तिगत रूप से पत्र लिखकर न्योता भेजा है। कहा जा रहा है कि इस बैठक की जद में सिर्फ राष्ट्रपति चुनाव ही नहीं है, बल्कि 2024 के महासमर की उम्मीद भी है। हालांकि वह पिछले एक साल में कई बार विपक्षी एकता की बात कह चुकी हैं। इसको लेकर वह कांग्रेस को छोड़कर अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं से चर्चा भी करती रही हैं। जैसे कि पिछले दिनों मुंबई जाकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) प्रमुख शरद पवार, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एवं शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के मंत्री पुत्र आदित्य ठाकरे और पार्टी नेता संजय राउत से मुलाकात की थीं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव (केसीआर) से भी बात की थीं। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ बैठक की थीं।
यूपी विधानसभा चुनाव में सपा के समर्थन में लखनऊ और वाराणसी में चुनावी रैली भी की थीं। इन गतिविधियों के जरिये ममता बिना कुछ कहे भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों को संकेत दे रही थीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने विपक्ष का चेहरा वही हो सकती हैं। अब जब राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा हुई है तो ममता ने बैठक आयोजित कर नई चाल चल दी है, लेकिन उनके इस प्रयास से कुछ विपक्षी दलों में शंका उत्पन्न हो गई है। कांग्रेस ने कहा है कि सोनिया गांधी ने खुद ममता और पवार से फोन पर बात कर फैसला किया था कि उनके प्रतिनिधि के रूप में राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकाजरुन खड़गे पवार, ममता, स्टालिन समेत अन्य नेताओं से बात कर बैठक के आयोजन को अंतिम रूप देंगे, पर उससे पहले अचानक ममता ने अपनी तरफ से सोनिया समेत अन्य नेताओं को बैठक का न्योता क्यों भेज दिया?
यही नहीं, सूत्रों के मुताबिक केसीआर, केजरीवाल समेत कुछ नेताओं को कांग्रेस के साथ बैठक करने पर आपत्ति है। केसीआर ने फोन पर बातचीत के दौरान ममता से इसे लेकर असहमति भी जताई थी। वहीं कहा जा रहा है कि तृणमूल सुप्रीमो को केजरीवाल ने आश्वासन दिया है कि अगर वे बैठक में मौजूद नहीं भी रहेंगे तो भी वह विपक्ष के साथ रहेंगे। वहीं ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक और आंध्र प्रदेश के सीएम जगनमोहन रेड्डी के भी इस मंच पर दिखाई देने की बहुत कम संभावना है। माकपा के राष्ट्रीय महासचिव सीताराम येचुरी ने ममता के इस कदम को विपक्षी एकता के लिए हानिकारक करार दे दिया है। कहा जा रहा है कि ममता ने दो दिन पहले सोनिया से बात की थी। कांग्रेस अध्यक्ष की तबीयत खराब है इसलिए ममता ने उनसे अनुरोध किया था कि उन्हें दबाव लेने की जरूरत नहीं है। ऐसे में प्रश्न यह उठ रहा है कि राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी दलों की अगुआई करने की कांग्रेस जो रणनीति बना रही थी, उसे एक ही झटके में ममता ने क्यों तोड़ दिया? ऐसे में क्या विपक्षी एकता बन पाएगी? इसका जवाब जल्द ही मिल जाएगा।