समीक्षा की मांग करती शराबबंदी, नहीं मिले सामाजिक बुराइयां घटने के पुख्ता प्रमाण

 

परंपरागत रूप से होता रहा है भांग और धतूरे का सेवन

शराबबंदी के समर्थक यह क्यों भूल जाते हैं कि तंबाकू भांग और मदिरा आदि हजारों वर्ष से हमारी जीवनशैली का हिस्सा रहे हैं। केवल उनकी अति ही हानिकारक होती है जिससे बचने के लिए सबसे सही उपाय शिक्षा-संस्कृति एवं जागरूरता ही है।

शंकर शरण: बिहार में अवैध शराब से हुई हालिया मौतों और कई लोगों की आंखों की रोशनी चले जाने पर हंगामा मचा है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर राज्य से रिपोर्ट मांगी है। ऐसी खबरें गुजरात से भी आती रहती हैं। इन दोनों राज्यों में शराबबंदी कानून लागू है, किंतु आश्चर्य यह कि ऐसी नीति के गुण-दोषों की कभी समीक्षा नहीं की जाती। ‍विशेषकर इस बिंदु पर कि जिन राज्यों में शराबबंदी लागू नहीं, उनकी तुलना में शराबबंदी वाले राज्यों में सामाजिक रूप से क्या लाभ और क्या हानि हुई? यदि दुनिया के उन देशों का जायजा लें, जहां शराबबंदी लागू की गई तो यही सामने आता है कि इससे वहां लाभ के बजाय नुकसान ही अधिक हुआ है और अंतत: शराबबंदी को वापस लेना पड़ा। शराबबंदी के सामान्य निष्कर्ष हर कहीं लगभग समान रहे हैं। अव्वल तो ऐसे कानून को विशेष जनसमर्थन नहीं मिला और हर कहीं इसे किसी न किसी वैचारिक जिद से लागू किया गया। ऐसा करने वाले सामाजिक बुराई का कारण शराब को बताकर शराबबंदी के पक्ष में मनमानी दलीलें देते आए हैं, किंतु इसके अच्छे-बुरे परिणामों पर कोई ठोस हिसाब करने से सदैव बचा जाता है।

शराबबंदी के समर्थक यह क्यों भूल जाते हैं कि तंबाकू, भांग और मदिरा आदि हजारों वर्ष से हमारी जीवनशैली का हिस्सा रहे हैं। केवल उनकी अति ही हानिकारक होती है, जिससे बचने के लिए सबसे सही उपाय शिक्षा-संस्कृति एवं जागरूरता ही है। इसीलिए अधिकांश सामान्य जन ऐसे कानून नहीं चाहते, जो मादक पदार्थों के सेवन को दंडनीय अपराध बनाए। शराब के सेवन को दंडनीय बनाने का परिणाम यह होता है कि ऐसे कानून के बावजूद धनी, प्रभावशाली और तिकड़मी लोग अपनी व्यवस्था बनाए रखते हैं। उन्हें बस कुछ अधिक खर्च करना पड़ता है। दूसरी ओर, शराब की तस्करी से एक समानांतर तंत्र फैलता है और अवैध कमाई का सिलसिला चल निकलता है। इस प्रकार, जो व्यवस्था पहले एक तंत्र और जिम्मेदार लोगों के पास थी, वह बिलकुल गैरजिम्मेदार तस्कर वर्ग के हाथ में चली जाती है, क्योंकि शराब की मांग तो बनी रहती है। शराबबंदी के कारण घटिया किस्म की शराब भी बिक जाती है, जिसके कारण लोगों की मौत हो जाती है, जैसा कि हाल में बिहार में देखने को भी मिला। इससे केवल शराब तस्करों की चांदी होती है, जबकि लोगों को जान और सरकार को राजस्व से हाथ धोना पड़ता है। यही कारण है कि शराबबंदी जैसे कानून अमेरिका और रूस में भी सफल नहीं हो सके।

जबरन शराबबंदी से सामाजिक बुराइयां घटने के भी पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं। यह सच है कि नशे में व्यक्ति का आत्मनियंत्रण घटता है और अनुचित कर्म करने की प्रवृत्ति उभरती है। हालांकि नशाबंदी कानून वाले क्षेत्रों और ऐसे कानून से मुक्त क्षेत्रों में अपराध के तुलनात्मक आंकड़े बताते हैं कि उनके पीछे नशे के अलावा अन्य कारक भी जिम्मेदार होते हैं। ऊपर से चोरी-छिपे मिलने वाली घटिया शराब लोगों की सेहत के लिए घातक सिद्ध होती है। अमेरिका का उदाहरण लें तो शराबबंदी के दस वर्षों में बीमा कंपनियों ने पाया कि शराब से हुई मौतों में छह गुना वृद्धि हुई। ऐसे कानून को सफल बनाने में राजकीय तंत्र पर भी बहुत भार पड़ता है। पुलिस-प्रशासन की ऊर्जा भी अपव्यय होती है। इस तरह देखें तो शराबबंदी समाधान कम, बल्कि समस्याएं अधिक उत्पन्न करती है।

हमारे देश में परंपरागत रूप से भांग और धतूरा आदि का सेवन होता रहा है, परंतु कभी उनसे कोई बड़ी समस्या उत्पन्न होने का विवरण इतिहास में नहीं मिलता। इसके बावजूद चार दशक पहले विदेशी दबाव में और शराब कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए इन देसी-जैविक मादक पदार्थों को प्रतिबंधित कर दिया गया। परिणामस्वरूप शराब और अन्य हानिकारक एवं महंगे नशीले पदार्थों का प्रचलन गांव-गांव तक बढ़ गया। इतना ही नहीं, देश में भांग उत्पादन रोकने से उससे बनने वाली दवाओं, सौंदर्य-प्रसाधन और विशेष प्रकार के कागज जैसे उद्योगों में भी भारत पिछड़ता गया। यह दुर्भाग्य है कि शिक्षा, चिकित्सा और स्वास्थ्य संबंधी क्षेत्रों में अपनी ज्ञान परंपरा और सामाजिक अनुभवों का आकलन किए बिना स्वतंत्र भारत में तरह-तरह के विजातीय नियम-व्यवहार थोपे जाते रहे। जबकि शिक्षा, संस्कृति, व्यापार और कृषि जैसे क्षेत्रों में भारत की अपनी विरासत यूरोप और अमेरिका से काफी समृद्ध और विविधतापूर्ण रही है। हमारे शास्त्रीय और लोक-साहित्य में खानपान, मर्यादा, सामाजिक व्यवहार और किन्हीं बुराइयों से बचने के उपायों के बारे में मूल्यवान सामग्री मिल सकती है। ऐसे में यह विचित्र ही है कि नीति-निर्माण या नई-नई व्यवस्थाएं बनाने में हमारे अपने देसी शासक अधिक लापरवाह रहे। जबकि ब्रिटिश शासकों ने 1893 में भांग के उपयोग पर निगरानी के लिए आयोग तो बनाया था, किंतु उसका सेवन कभी प्रतिबंधित नहीं किया।

इसमें संदेह नहीं कि भारत में नीति-निर्माण के मोर्चे पर अक्सर हीलाहवाली का परिचय दिया जाता है और उनका परीक्षण किए बिना दबाव में ही तमाम नीतियां बना दी जाती हैं। उन्हें बनाने या लागू करने से पहले जानकार लोगों और विशेषज्ञों से कोई सलाह नहीं की जाती। हमारे शासक, प्रशासक अपने अनुमानों या प्रायः दलीय, मतवादी या इतर हितों के लिए जैसी-तैसी या विदेशी अनुशंसाएं लागू करते रहते हैं। हाल के दशकों में यहां तमाम नीतियां, संस्थान और प्रविधान केवल विदेशियों या संयुक्त राष्ट्र के कहने मात्र से बनते रहे हैं। उन्हें बनाने से पहले कभी कोई अपना राष्ट्रीय आकलन नहीं किया गया कि उनकी कोई आवश्यकता है भी या नहीं। यही बात शराबबंदी पर भी लागू होती है। कुछ वर्गों की कथित संतुष्टि के नाम पर इसे लागू किया गया। नि:संदेह, नशाखोरी एक बुराई है, किंतु इसका सही समाधान सुशिक्षा और सांस्कृतिक क्रियाकलापों को प्रोत्साहन देने में है। ऐसा करके ही सामाजिक बुराइयां स्वतः नियंत्रण में रहती हैं। शराब और मादक पदार्थों के सेवन को घटाने में भी यही बेहतर उपाय प्रतीत होता है।