लिवर ट्रांसप्लांट एक कठिन ऑपरेशन है। लिवर ट्रांसप्लांट की जरूरत उन मरीजों को पड़ती है जिनका लिवर बहुत कमजोर हो चुका है। लिवर ट्रांसप्लांट में मरीज का खराब लिवर निकालकर नया लिवर लगाया जाता है जो किसी डोनर का होता है।
नई दिल्ली। ब्रांड डेस्क: लिवर शरीर का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण आंतरिक अंग है। यह कई तरह के कार्य करता है, जैसे शरीर से टॉक्सिक पदार्थ को बाहर निकालना, स्वस्थ बल्ड शुगर के स्तर को बनाए रखना और ब्लड क्लोटिंग को नियंत्रित करना आदि। हालांकि, शराब पीने जैसी गलत आदतों या वायरस की वजह से हम अपने लिवर को नुकसान पहुंचाते हैं और यह अंग खराब होना शुरू हो जाता है। अगर स्थिति गंभीर हो जाए या लिवर फेल हो जाए तो वहां लिवर ट्रांसप्लांट ही एक सही उपचार है।
क्या है लिवर ट्रांसप्लांट
लिवर ट्रांसप्लांट एक जटिल ऑपरेशन है। लिवर ट्रांसप्लांट की जरूरत उन मरीजों को पड़ती है, जिनका लिवर बहुत कमजोर हो चुका है। लिवर ट्रांसप्लांट एक अस्वस्थ लिवर को स्वस्थ लिवर से बदलने की एक शल्य प्रक्रिया है। लिवर कमजोर होने की बीमारी को सिरोसिस के नाम से भी जाना जाता है। सिरोसिस कई वजह से हो सकता है, जिसमें अत्यधिक शराब पीना तथा हेपिटाइटिस बी एवं हेपिटाइटिस सी तथा डायबिटीज़ एवं मोटापे की वजह से लिवर में कमजोरी आना आम वजह है। बच्चों में कई जन्मजात बीमारी जैसे कि बिलीरुबिन, एट्रेसिया, विल्सन डिजीज आदि से भी लिवर खराब हो सकता है।
हेपेटाइटिस बी एवं हेपेटाइटिस सी से लिवर सिरोसिस
बता दें कि हेपेटाइटिस बी एवं हेपेटाइटिस सी इन्फेक्टेड ब्लड देने अथवा नीडल द्वारा ड्रग के सेवन से ट्रांसमिट होता है। यह संक्रमित व्यक्ति से यौन संबंध बनाने से भी फैल सकता है। यह बीमारी माता द्वारा बच्चे में जन्म के समय भी ट्रांसमिट हो सकती है। हालांकि, यह खाने तथा मरीज की देखभाल करने या हाथ लगाने से नहीं फैलती है। लंबे समय तक हेपेटाइटिस बी एवं हेपेटाइटिस सी वायरस रहने से लिवर सिरोसिस जैसी गंभीर बीमारी हो सकती है।
लिवर खराब होने के लक्षण
लिवर सिरोसिस होने पर मरीज को पीलिया, खून की उल्टी तथा पेट में पानी आने जैसी परेशानियां होती हैं। सिरोसिस की बीमारी कई बार सिर्फ पेट में भारीपन या पैरों में सूजन या कम भूख लगने से भी हो सकती है। इसका मुख्य लक्षण पीलिया या जॉन्डिस भी होता है। पीलिया बिलीरुबिन नाम के पदार्थ के जमा होने की वजह से हो जाता है, जिसमें की आंखें व चमड़ी का रंग पीला हो जाता है। यह बिलुरुबिन लिवर के द्वारा मेटाबॉलाइज्ड किया जाता है तथा लिवर कमजोर होने की वजह से बिलीरुबिन शरीर में जमा हो जाता है, जिससे पीलिया हो जाता है। पीलिया के अलावा मरीज को कई अन्य तरह की परेशानी होती है। मरीज को उल्टी के रास्ते खून आ सकता है या काले रंग का मल भी निकल सकता है। इसके अलावा पेट में पानी भी भर सकता है। लिवर कमजोर हो जाने से लिवर काफी सख्त हो जाता है तथा इसकी वजह से पेट में खून की धमनियों में अत्याधिक प्रेशर बनने से पेट में पानी आ जाने तथा आंतों के अंदर खून की धमनियों के फूल जाने से ब्लीडिंग का खतरा होता है। ऐसे मरीज को अचानक खून की उल्टी होने से गंभीर हालत पैदा होती है। यदि पेट में पानी आ गया है और खून की उल्टी हुई है, तो यह लिवर की बीमारी के गंभीर होने के लक्षण हो सकते हैं। आप गैस्ट्रोलॉजिस्ट डॉक्टर या लिवर स्पेशलिस्ट को दिखाकर इसका इलाज तुरंत शुरू कराएं।
क्या है इसका उपचार
इसमें डॉक्टर द्वारा ज्यादातर नमक कम खाने या पानी कम पीने की सलाह दी जाती है तथा ड्यूरेटिक नाम की दवाई, जिससे कि अत्यधिक पेशाब होता है, उससे पानी को निकालने की कोशिश की जाती है। इंटेस्टाइन में सूजी हुई खून की धमनियों को एंडोस्कोपी और बैंडिंग द्वारा कंट्रोल किया जाता है, ताकि उनमें रक्तस्राव ना हो। दवाइयों द्वारा पानी कम करने तथा बैंडिंग की प्रक्रिया से कुछ हद तक इस बीमारी को कंट्रोल कर सकते हैं, परंतु लिवर सिरोसिस होने से अंदरूनी कमजोरी बनी रहती है तथा मरीज की जान को खतरा बना रहता है।
लिवर सिरोसिस के बढ़ जाने से मरीज को एन्सेफेलोपैथी हो सकती है। इसमें उलझन या अधिक नींद आना या फिर बेहोशी की हालत भी हो सकती है। लिवर द्वारा संचालित पाचन तंत्र बहुत कमजोर हो जाता है, इसकी वजह से मरीज की मांसपेशियां काफी कमजोर हो जाती है तथा वजन भी कम हो जाता है एवं एल्ब्यूमिन की मात्रा भी कम हो जाती है। डॉक्टर मरीज को एल्ब्यूमिन देने की सलाह भी दे सकते हैं। सिरोसिस में लिवर कैंसर होने की संभावना भी रहती है। सिरोसिस एडवान्स हो जाने पर आपका डॉक्टर उपचार के लिए लिवर ट्रांसप्लांट के लिए एडवाइस कर सकता है।
लिवर ट्रांसप्लांट क्यों है एक कारगर उपाय
इस समय लिवर ट्रांसप्लांट की सफलता दर करीब 85 - 90% प्रतिशत होने के कारण यह एक कारगर उपाय है। लिवर ट्रांसप्लांट तकनीकी रूप से कठिन सर्जरी मानी जाती है, जिसमें सर्जन को विशेष तकनीकों में प्रशिक्षित होना पड़ता है। लिवर ट्रांसप्लांट कराने से पहले मरीज की कई तरह की जांच होती हैं और ऑपरेशन के लिए फिटनेस टेस्ट होता है। लिवर ट्रांसप्लांट ऑपरेशन में मरीज का खराब लिवर निकालकर नया लिवर लगाया जाता है, जो किसी डोनर का होता है। ज्यादातर यह मरीज के निकटतम संबंधियों द्वारा ही डोनेट किया जाता है। वैसे लिवर एक कैडेवर (मृत शरीर) के द्वारा भी प्राप्त हो सकता है, परंतु अभी हमारे देश में मृत्यु के बाद लिवर डोनेशन करने की संख्या काफी कम है।
लिवर ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया
लिवर ट्रांसप्लांट के मरीज को ऐसे में कई महीनों या फिर सालों तक भी इंतजार करना पड़ सकता है। ऐसे में उसकी कंडीशन खराब हो सकती है, इसलिए ज्यादातर नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा ही लिवर डोनेट किया जाता है। लिवर डोनेशन सर्जरी में लिवर का करीब 50 से 60 फीसदी हिस्सा निकाल दिया जाता है। डोनेशन से पहले डोनर के कई तरह के टेस्ट होते हैं, जिसमें कि डोनर की जनरल ब्लड टेस्ट जनरल फिजिकल टेस्ट तथा लिवर की अंदरूनी संरचना की जानकारी ली जाती है, ताकि यह देखा जा सके कि लिवर को सही तरीके से विभाजित किया जा सकता है या नहीं। इसके लिए सीटी स्कैन होता है। डोनर का ब्लड ग्रुप मरीज के लिवर से मैच होना चाहिए या फिर O ब्लड ग्रुप होना चाहिए। डोनेशन के लिए डोनर को सरकार या अस्पताल द्वारा बनाई गई कमेटी से अप्रूव किया जाता है।
ऑपरेशन करीब 8 घंटे का होता है तथा डोनर को अस्पताल में करीब 7 दिन रहना पड़ता है। डोनेशन की प्रक्रिया में जान जाने का जोखिम 1% से भी कम है तथा कॉम्प्लिकेशन होने का चांस भी बहुत कम रहता है। कुछ दिनों तक मामूली तकलीफ रह सकती है। करीब 3 महीने में डोनर का लिवर वापस बड़ा हो जाता है। लिवर डोनेशन के बाद करीब 1 से 3 महीने में मरीज पूरी तरह से स्वस्थ महसूस करता है। लिवर ट्रांसप्लांट ऑपरेशन करीब 12 घंटे चलता है, इसमें मरीज का खराब लिवर पूरी तरह से निकाल दिया जाता है तथा नए लिवर को उसके स्थान पर लगा दिया जाता है। इसमें लिवर में आने वाली खून की सप्लाई के लिए नलियों को जोड़ा जाता है। इसके अलावा पित्त की नली एवं लिवर से खून की सप्लाई वापस ले जाने वाली धमनियों को हॉट से जोड़ा जाता है।
लिवर ट्रांसप्लांट के बाद कुछ कॉम्प्लिकेशन हो सकते हैं जैसे कि रिजेक्शन, इंफेक्शन, ब्लीडिंग, पित्त का स्राव, हर्निया आदि, जिसके लिए डॉक्टर को अतिरिक्त उपचार करना पड़ सकता है। ट्रांसप्लांट के बाद करीब 5 से 7 दिन आईसीयू में रखा जाता है तथा करीब 15 से 20 दिन तक अस्पताल में रखा जाता है। मरीज को ऑपरेशन के बाद कई तरह की सावधानियां बरतनी होती है, जैसे कि खानपान का विशेष ध्यान रखना तथा भीड़ से बचना। इसके अलावा मरीज का नियमित रूप से टेस्ट कराया जाता है। मरीज को रिजेक्शन व इंफेक्शन से बचाने के लिए दवाइयां दी जाती हैं। यह दवाइयां शुरुआत में ज्यादा होती है और धीरे-धीरे कम की जाती है, पर कुछ ताउम्र चलती है। दवाइयों के अलावा मरीज की जनरल सेहत का भी काफी ध्यान रखना पड़ता है, जैसे ब्लड प्रेशर एवं शुगर को कंट्रोल रखना तथा नियमित व्यायाम करना मरीज के लिए फायदेमंद हो सकता है। इस तरह मरीज को नई जिंदगी मिलती है, वह बेहतर काम कर सकता है और पूरी जिंदगी जी सकता है।