पंथ प्रचार की मनमानी स्वतंत्रता, आजादी के बाद से जारी छल-कपट के सहारे
मतांतरण कराने वाले कानून में तलाश ही लेते हैं छिद्र

छल-कपट का सहारा लेकर अथवा डरा-धमकाकर मतांतरण का सिलसिला आजादी के बाद से चला आ रहा है। बड़े पैमाने पर मतांतरण के चलते देश के कई हिस्सों में जनांकिकीय परिवर्तन हो चुका है। ऐसे कुछ हिस्से अशांति और अस्थिरता से भी ग्रस्त हैं।

 छल-बल और लोभ-लालच से मतांतरण रोकने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बीच हरियाणा में मतांतरण रोधी कानून लागू हो गया है। इसे अपेक्षाकृत कठोर बताया जा रहा है, लेकिन इसमें संदेह है कि मौजूदा कानूनों के जरिये अवैध मतांतरण पर रोक लग सकती है। इसका कारण यह है कि मतांतरण कराने वाले संबंधित कानून में छिद्र तलाश ही लेते हैं। इससे भी बड़ा कारण यह है कि संविधान के तहत मत प्रचार की स्वतंत्रता का जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है। भले ही सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह कहा हो कि मत प्रचार की स्वतंत्रता में मतांतरण कराने का अधिकार शामिल नहीं है, लेकिन सच यही है कि इसी स्वतंत्रता की आड़ में लोगों को झूठ का सहारा लेकर या डराकर अथवा प्रलोभन देकर मतांतरित किया जाता है।

पता नहीं छल-बल और लोभ-लालच से मतांतरण रोकने को लेकर जिस याचिका की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हो रही है, उसमें क्या फैसला होगा, लेकिन यह तय है कि यदि मत प्रचार की वैसी ही स्वतंत्रता कायम रही, जैसी मिली हुई है तो अवैध मतांतरण पर रोक नहीं लगने वाली। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि कुछ मत-मजहब ऐसे हैं, जिनके प्रचारक यह मानते हैं कि उनका पंथ श्रेष्ठ है और शेष अन्य झूठे हैं और उनके अनुयायी गलत राह पर हैं। यदि कोई मतावंलबी यह मानता है कि उसका पंथ सबसे श्रेष्ठ और सच्चा है तो इसमें हर्ज नहीं। समस्या तब होती है, जब वह अन्य पंथों को न केवल झूठा और गलत मानता है, बल्कि ऐसा सार्वजनिक रूप से कहता भी है। यह और कुछ नहीं एक तरह की हेट स्पीच है, लेकिन मत-पंथ प्रचार की असीमित स्वतंत्रता के चलते उस पर कोई रोक-टोक नहीं।अवैध मतांतरण कराने वाले भोले-भाले, गरीब-अशिक्षित लोगों से यह कहने से भी गुरेज नहीं करते कि यदि उन्हें दुख, बीमारी और गरीबी से उबरना है तो अमुक देव की प्रार्थना करनी होगी, क्योंकि अभी आप जिनकी अराधना-उपासना कर रहे हैं, वे नकली हैं। वे कपटपूर्ण व्यवहार से ऐसा “सिद्ध” करके भी दिखा देते हैं। यह खुली धोखाधड़ी के अलावा और कुछ नहीं। आखिर यह कहने का अधिकार मिलना मत प्रचार की स्वतंत्रता कैसे हो सकती है कि हमारे आराध्य के अलावा अन्य कोई ईश नहीं? क्या हमारी सरकारें और न्यायपालिका इससे अनभिज्ञ है कि मतांतरण में लिप्त संगठन यही सब कुछ कहकर लोगों को बरगलाते-डराते हैं और अंततः उनका मतांतरण कराने में सफल रहते हैं। छल-कपट का सहारा लेकर अथवा डरा-धमकाकर मतांतरण का सिलसिला आजादी के बाद से चला आ रहा है। बड़े पैमाने पर मतांतरण के चलते देश के कई हिस्सों में जनांकिकीय परिवर्तन हो चुका है। ऐसे कुछ हिस्से अशांति और अस्थिरता से भी ग्रस्त हैं। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सरकार ने यह कहा कि पंथ प्रचार की आजादी मतांतरण कराने का अधिकार नहीं देती, क्योंकि सच यही है कि उन संगठनों ने यह अधिकार हासिल कर रखा है, जिन पर यह सनक सवार है कि समस्त संसार को अपने पंथ का अनुयायी बनाना उनका कर्तव्य है।